Tuesday, 23 May 2017

Maratha veer shivaji- शिवाजी का प्रारंभिक परिचय:-

प्रस्तुत जीवनी एक ऐसे वीर महापुरूष की है,जिसे पढने के बाद एक भारतीय के मन-मस्तिष्क में अपने पूर्वजों की वीरता को बरकरार रखने हेतू एक ओजस्वी व वतन के लिए कुछ कर गुजरने की भावना का हिलोरे लेने लगती है ।

ये महापुरूष और कोई नहीं बल्कि हिन्दुत्व के महान रक्षक और मुगलों की ईंट से ईंट बजाने वाले शिवाजी उर्फ़ छत्रपति शिवाजी महाराज है।

शिवाजी का प्रारंभिक परिचय:-

यूॅ तो शिवाजी महाराज की शख्शियत किसी परिचय की मोहताज नहीं, लैकिन फिर भी सामान्य जानकारी हेतू इसे प्रस्तुत करने की हिमाकत कर रहा हू, इसके लिए क्षमाप्राथी हूॅ।

शिवाजी उर्फ छत्रपति शिवाजी महाराज का प्रारंभिक जीवन:-

        शिवाजी महाराज  भारतीय शासक और मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे।शिवाजी महाराज एक बहादुर, बुद्धिमान और निडर शासक थे। धार्मिक अभ्यासों में उनकी काफी रूचि थी। रामायण और महाभारत का अभ्यास वे बड़े ध्यान से करते थे।

पूरा नाम    – शिवाजी शहाजी भोसले

जन्म       – 19 फरवरी, 1630

जन्मस्थान – शिवनेरी दुर्ग (पुणे)

पिता       – शहाजी भोसले

माता        – जिजाबाई शहाजी भोसले

विवाह     –  सइबाई के साथ

छत्रपती शिवाजी महाराज का बचपन:-

       शाहजी भोंसले की पत्नी जीजाबाई (राजमाता जिजाऊ)की कोख से शिवाजी महाराजका जन्म 19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ था।

शिवनेरी दुर्ग पूना (पुणे) से उत्तर की तरफ़ जुन्नार नगर के पास था।

उनका बचपन राजा राम, संतों तथा रामायण, महाभारत की कहानियों और सत्संग मेंबीता। वह सभी कलाओ में माहिर थे, उन्होंने बचपन में राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा ली थी।

उनके पिता शहाजी भोसले अप्रतिम शूरवीर थे। शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा।

बचपन से ही वे उस युग के वातावरण और घटनाओं को बहली प्रकार समझने लगे थे। शासन वर्ग की करतूतों पर वे झल्लाते थे और बेचैन हो जाते थे। उनके बाल-ह्रदय में स्वाधीनता की लौ प्रज्ज्वलित हो गयी थी।

उन्होंने कुछ मावळावो (सभि जाती के लोगो को ऐक ही (मावळा) ऊपाधी दे कर जाती भेद खत्म करके सारि प्रजा को संघटित कीया था) का संगठन किया।

विदेशी शासन की बेड़ियाँतोड़ फेंकने का उनका संकल्प प्रबलतर होता गया।

छत्रपति शिवाजी महाराज का विवाह सन 14 मई 1640 में सइबाई निम्बालकर के साथ लाल महल पुना में हुआ था।

शिवाजी महाराज का शिवराज्याभिषेक:–
    
           सन 1674 तक शिवाजी राजे ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की संधि के अंतर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी राजे का राज्याभिषेक हुआ।

विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया।

शिवाजी राजे ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। काशी के पंडित विश्वेक्ष्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था।
पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। इस कारण से दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ।

इस समारोह में हिन्द स्वराजकी स्थापना का उद्घोष किया गया था।
विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था।

एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया।

इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरुध्द भेजा पर वे असफल रहे।

एक नजर मै शिवाजी महाराज का इतिहास –

      उनका जन्म पुणे के किले में 19 फरवरी 1630 को हुआ था। (उनकी जन्मतिथि को लेकर आज भी मतभेद चल रहे है)

शिवाजी महाराज ने अपना पहला आक्रमण तोरण किले पर किया, 16-17 वर्ष की आयु में ही लोगों ( मावळावो ) को संगठित करके अपने आस-पास के किलों पर हमले प्रारंभ किए और इस प्रकार एक-एक करके अनेक किले जीत लिये, जिनमें सिंहगढ़, जावली कोकण, राजगढ़, औरंगाबाद और सुरत के किले प्रसिध्द है।

शिवाजी की ताकत को बढ़ता हुआ देख बीजापुर के सुल्तान ने उनके पिता को हिरासत में ले लिए। बीजापुर के सुल्तान से अपने पिता को छुड़ाने के बाद शिवाजी राजे ने पुरंदर और जावेली के किलो पर भी जीत हासिल की।

इस प्रकार अपने प्रयत्न से काफी बड़े प्रदेश पर कब्जा कर लिया।

शिवाजी राजे की बढती ताकत को देखते हुए मुघल सम्राट औरंगजेब ने जय सिंह और दिलीप खान को शिवाजी को रोकने के लिये भेजा। और उन्होंनेशिवाजी को समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा। समझौते के अनुसार उन्हें मुघल शासक को 24 किले देने थे। इसी इरादे से औरंगजेब ने शिवाजी राजे को आमंत्रित भी किया। और बाद में शिवाजी राजे को औरंगजेब ने अपनी हिरासतमें ले लिया था।

कैद से आज़ाद होने के बाद, छत्रपति ने जो किले पुरंदर समझौते में खोयेथे उन्हें पुनः हासिल कर लिया। और उसी समय उन्हें “छत्रपति” का शीर्षक भी दिया गया।

उन्होंने मराठाओ की एक विशाल सेना तैयार की थी। उन्होंने गुरिल्ला के युद्ध प्रयोग का भी प्रचलन शुरू किया। उन्होंने सशक्त नौसेना भी तैयार कर रखी थी। भारतीय नौसेना का उन्हें जनक कहा जाता है।

जून, 1674 में उन्हें मराठा राज्य का संस्थापक घोषीत करके सिंहासन पर बैठाया गया।

शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के 12 दिन बाद उनकी माता का देहांत हो गया।

उनको ‘छत्रपती’ की उपाधि दी गयी। उन्होंनेअपना शासन हिन्दू-पध्दती के अनुसार चलाया।शिवाजी महाराज के साहसी चरित्र और नैतिक बल के लिये उस समय के महान संत तुकाराम, समर्थ गुरुरामदास तथा उनकी माता जिजाबाई का अत्याधिक प्रभाव था।

एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नाम का सिक्का चलवाया।

  शिवाजी महाराज की राजमुद्रा –

     6 जून “इ.स. 1674” को शिवाजी महाराज का रायगड पर राज्याभिषेक हुवा। और तभी से “शिवराज्याभिषेकशक शुरू किया और “शिवराई” ये मुद्रा आयी।
छत्रपती शिवाजी राजे पुणे का काम देखने लगे, तभी उन्होंने खुदकी राजमुद्रा तैयार की। और ये राजमुद्रा संस्कृत भाषा में थी।

संस्कृत : “प्रतिपच्चंद्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववंदिता शाहसुनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते”

अंग्रेजी अनुवाद:- The glory of this Mudra of Shahaji’s son Shivaji (Maharaj) will grow like the first daymoon. It will be worshiped by the world & it will shine only for well being of people.

शिवाजी के माता-पिता (एक परिचय):-

उनकी माता ने उनका नाम भगवान शिवाय के नाम पर शिवाजी रखा जो उनसे स्वस्थ सन्तान के लिए प्रार्थना करती रहती थी |

शिवाजी के पिताजी शाहजी भोंसले एक मराठा सेनापति थे जो डेक्कन सल्तनत के लिए काम करते थे

शिवाजी महाराज की माँ जीजाबाई सिंधखेड़ के लाखूजीराव जाधव की पुत्री थी |

शिवाजी के जन्म के समय डेक्कन की सत्ता तीन इस्लामिक सल्तनतो बीजापुर ,अहमदनगर और गोलकोंडा में थी|
शाहजी अक्सर अपनी निष्ठा निजामशाही ,आदिलशाह और मुगलों के बीच बदलते रहते थे लेकिन अपनी जागीर हमेशा पुणे ही रखी और उनके साथ उनकी छोटी सेना भी रहती थी

शिवाजी अपनी माँ जीजाबाई से बेहद समर्पित थे जो बहुत ही धार्मिक थी| धार्मिक वातावरण ने शिवाजी पर बहुत गहरा प्रभाव डाला था जिसकी वजह से शिवाजी महाराज ने महान हिन्दू ग्रंथो रामायण और महाभारत की कहानिया भी अपनी माता से सुनी  | इन दो ग्रंथो की वजह से वो जीवनपर्यन्त हिन्दू महत्वो का बचाव करते रहे |

इसी दौरान शाहजी ने दूसरा विवाह किया और उनकी दुसरी पत्नी तुकाबाई के साथ शाहजी कर्नाटक में आदिलशाह की तरफसे सैन्य अभियानो के लिए चले गये |

उन्होंने शिवाजी और जीजाबाई को छोडकर उनका सरंक्षक दादोजी कोंणदेव को बना दिया|
दादोजी ने शिवाजी को बुनियादी लड़ाई तकनीके जैसे घुड़सवारी, तलवारबाजी और निशानेबाजी सिखाई |

शिवाजी बचपन से ही उत्साही योद्धा थे हालांकि इस वजह से उन्हें केवल औपचारिक शिक्षा दी गयी जिसमे वो लिख पढ़ नही सकते थे लेकिन फिर भी उनको सुनाई गई बातो को उन्हें अच्छी तरह याद रहता था |

शिवाजी ने मावल क्षेत्र से अपने विश्वस्त साथियो और सेना को इकट्टा किया |
मावल साथियों के साथ  शिवाजी खुद को मजबूत करने और अपनी मातृभूमि के ज्ञान के लिए सहयाद्रि रेंज की पहाडियों और जंगलो में घूमते रहते थे ताकि वो सैन्य प्रयासों के लिए तैयार हो सके |

12 वर्ष की उम्र में शिवाजी को बंगलौर ले जाया गया जहा उनका ज्येष्ठ भाई साम्भाजी और उनका सौतेला भाई एकोजी पहले ही औपचारिक रूप से प्रशिक्षित थे |

1645 में किशोर शिवाजी ने प्रथम बार हिंदवी स्वराज्य की अवधारणा दादाजी नरस प्रभु के समक्ष प्रकट की |

शिवाजी का आदिलशाही सल्तनत के साथ संघर्ष:-

1645 में 15 वर्ष की आयु में  शिवाजी ने आदिलशाह सेना को आक्रमण की सुचना दिए बिना हमला कर तोरणा किला विजयी कर लिया|

फिरंगोजी नरसला ने शिवाजी की स्वामीभक्ति स्वीकार कर ली और शिवाजी ने कोंडाना का किले पर कब्जा कर लिया |

कुछ तथ्य बताते है कि शाहजी को 1649 में इस शर्त पर रिहा कर दिया गया कि शिवाजी और संभाजी कोंड़ना का किला छोड़ देवे लेकिन कुछ तथ्य शाहजी को  1653 से 1655 तक कारावास मेंबताते है |

शाहजी की रिहाई के बाद वो सार्वजनिक जीवन से सेवामुक्त हो गये और शिकार के दौरान 1645 के आस पास उनकी मृत्यु हो गयी |

पिता की मौत के बाद  शिवाजी ने आक्रमण करते हुए फिर से 1656 में पड़ोसी मराठा मुखिया से जावली का साम्राज्य हथिया लिया |

1659 में आदिलशाह ने एक अनुभवी और दिग्गज सेनापति अफज़ल खान को शिवाजी को तबाह करने के लिए भेजा ताकि वो क्षेत्रीय विद्रोह को कम कर देवे |
10 नवम्बर 1659 को वो दोनों प्रतापगढ़ किले की तलहटी पर एक झोपड़ी में मिले | इस तरह का हुक्मनामा तैयार किया गया था कि दोनों केवल एक तलवार के साथ आयेगे  |
शिवाजी को को संदेह हुआ कि अफज़ल खान उन पर हमला करने की रणनीति बनाकर आएगा इसलिए शिवाजी ने अपने कपड़ो के नीचे कवच, दायी भुजा पर छुपा हुआ बाघ नकेल और बाए हाथ में एक कटार साथ लेकर आये|
तथ्यों के अनुसार दोनों में से किसी एक ने पहले वार किया , मराठा इतिहास में अफज़ल खान को विश्वासघाती बताया है जबकि पारसी इतिहास में शिवाजी कोविश्वासघाती बताया है |

इस लड़ाई में अफज़ल खान की कटार को शिवाजी के कवच में रोक दिया और शिवाजी के हथियार बाघ नकेल ने अफज़ल खान पर इतने घातक घाव कर दिए जिससे उसकी मौत हो गयी |

इसके बाद शिवाजी ने अपने छिपे हुए सैनिको को बीजापुर पर हमला करने के संकेत दिए |10 नवम्बर 1659 को प्रतापगढ़ का युद्ध हुआ जिसमे शिवाजी की सेना ने बीजापुर के सल्तनत की सेना को हरा दिया |

चुस्त मराठा पैदल सेना और घुडसवार बीजापुर पर लगातार हमला करने लगे और बीजापुर के घुड़सवार सेना के तैयार होने से पहले ही आक्रमण कर दिया |
मराठा सेना ने  बीजापुर सेना को पीछे धकेल दिया |
बीजापुर सेना के 3000 सैनिक मारे गये और अफज़ल खान के दो पुत्रो को बंदी बना लिया गया |

इस बहादुरी से शिवाजी मराठा लोकगीतो में एक वीर और महान नायक बन गये|

बड़ी संख्या में जब्त किये गये हथियारों ,घोड़ो ,और दुसरे सैन्य सामानों से मराठा सेना ओर ज्यादा मजबूत हो गयी |

मुगल बादशाह औरंगजेब ने शिवाजी को मुगल साम्राज्य के लिए बड़ा खतरा मान लिया |

प्रतापगढ़ में हुए नुकसान की भरपाई करने और नवोदय मराठा शक्ति को हराने के लिए इस बार बीजापुर के नये सेनापतिरुस्तम जमन के नेतृत्व में शिवाजी के विरुद्ध 10000 सैनिको को भेजा |
मराठा सेना के 5000 घुड़सवारो की मदद से शिवाजी ने कोल्हापुर के निकट 28 दिसम्बर 1659 को धावा बोल दिया|
आक्रमण को तेज करते हुए शिवाजी ने दुश्मन की सेना को मध्य से प्रहार किया और दो घुड़सवार सेना ने दोनों तरफ से हमला कर दिया |
कई घंटो तक ये युद्ध चला और अंत में बीजापुर की सेना बिना किसी नुकसान के पराजितहो गयी और सेनापति रुस्तमजमन रणभूमि छोडकर भाग गया |
आदिलशाही सेना ने इस बार 2000 घोड़े औउर 12 हाथी खो दिए|

1660 में आदिलशाह ने अपने नये सेनापति सिद्दी जौहर ने मुगलों के साथ गठबंधन कर हमले की तैयारी की |
उस समय शिवाजी की सेना ने पन्हाला [वर्तमान कोल्हापुर ] में डेरा डाला हुआ था | सिद्दी जौहर की सेना किले से आपूर्ति मार्गों को बंद करते हुए शिवाजी की सेना को घेर लिया |
पन्हाला में बमबारी के दौरान सिद्दी जौहर ने अपनी युद्ध क्षमता बढ़ाने के लिए अंग्रेजो से हथगोले खरीद लिए थे और साथ ही कुछ बमबारी करने के लिए कुछ अंग्रेज तोपची भी नियुक्त किये थे |
इस कथित विश्वासघात से  शिवाजी नाराज हो गये क्योंकि उन्होंने एक राजापुर के एक अंगरेजी कारखानेसे हथगोले लुटे थे |

घेराबंदी के बाद अलग अलग लेखो में अलग अलग बात बताई गयी है जिसमे से एक लेख में  शिवाजी बचकर भाग जाते है और इसके बाद आदिल शाह खुद किले में हमला करने आता है और चार महीनो तक घेराबंदी के बाद किले पर कब्जा कर लेता है |

दुसरे लेखो में घेराबंदी के बाद शिवाजी सिद्दी जौहर से बातचीत कर विशालगढ़ का किला उसको सौप देते है |

शिवाजी के समर्पण या बच निकलने पर भी विवाद है | लेखो के अनुसार शिवाजी रात के अँधेरे में पन्हला से निकल जाते है और दुश्मन सेना उनका पीछा करतीहै |

मराठा सरदार बंदल देशमुख के बाजी प्रभु देशपांडे अपने 300 सैनिको के साथ स्वेच्छा से दुश्मन सेना को रोकने के लिए लड़ते है और कुछ सेना शिवाजी को सुरक्षित विशालगढ़ के किले तक पंहुचा देती है|

पवन खिंड के युद्ध में छोटी मराठा सेना विशाल दुश्मन सेना को रोककर शिवाजी को बच निकलने का समय देती है |
बाजी प्रभु देशपांडे इस युद्ध में घायलहोने के बावजूद लड़ते रहे जब तक कि विशालगढ़ से उनको तोप की आवाज नही आ गयी |
तोप की आवाज इस बात का संकेत था कि शिवाजी सुरक्षित किले तक पहुच गये है |

शिवाजी का मुगलों के साथ संघर्ष और शाइस्ता खाँ पर हमला :-

        1657 तक शिवाजी  ने मुगल साम्राज्य के साथ शांतिपूर्ण संबंध बनाये|
शिवाजी ने बीजापुर पर कब्ज़ा करने में औरंगजेब को सहायता देने का प्रस्ताव दिया और बदले में उसने बीजापुरी किलो और गाँवों को उसके अधिकार में देने की बात कही |

शिवाजी का मुगलों से टकराव 1657 में शुरू हुआ जब शिवाजी के दो अधिकारियो ने अहमदनगर के करीब मुगल क्षेत्र पर आक्रमण कर लिया|
इसके बाद शिवाजी ने जुनार पर आक्रमण कर दिया और 3 लाख सिक्के और 200 घोड़े लेकर चले गये |

औरंगजेब ने जवाबी हमले के लिए नसीरी खान को आक्रमण के लिए भेजा जिसने अहमदनगर में शिवाजी की सेना को हराया था |

लेकिन औरंगजेब का  शिवाजी के खिलाफ ये युद्ध बारिश के मौसम और शाहजहा की तबियत खराब होने की वजह से बाधित हो गया|

बीजापुर की बड़ी बेगम के आग्रह पर औरंगजेब ने उसके मामा शाइस्ता खाँ को 150,000 सैनिको के साथ भेजा|
इस सेना ने पुणे और चाकन के किले पर कब्ज़ा कर आक्रमण कर दिया और एक महीने तक घेराबंदी की |

शाइस्ता खाँ ने अपनी विशाल सेना का उपयोग करते हुए मराठा प्रदेशो और शिवाजी के निवास स्थान लाल महल पर आक्रमण कर दिया |

शिवाजी ने शाइस्ता खाँ पर अप्रत्याशित आक्रमण कर दिया जिसमे  शिवाजी और उनके 200 साथियों ने एक विवाह की आड़ में पुणे में घुसपैठ कर दी|
महल के पहरेदारो को हराकर ,दीवार पर चढ़कर शहिस्ता खान के निवास स्थान तक पहुच गये और वहा जो भी मिला उसको मार दिया |

शाइस्ता खाँ की शिवाजी से हाथापाई में उसने अपना अंगूठा गवा दिया और बच कर भाग गया|
इस घुसपैठ में उसका एक पुत्र और परिवार के दुसरे सदस्य मारे गये |
शाइस्ता खाँ ने पुणे से बाहर मुगल सेना के यहा शरण ली और औरंगजेब ने शर्मिंदगी के मारे सजा के रूप में उसको बंगाल भेज दिया |

शाइस्ता खाँ ने एक उज़बेक सेनापति करतलब खान को आक्रमण के लिए भेजा |
30000 मुगल सैनिको के साथ वो पुणे के लिए रवाना हुए और प्रदेश के पीछे से मराठो पर अप्रत्याशित हमला करने की योजना बनाई |

उम्भेरखिंड के युद्ध में शिवाजी की सेना ने पैदल सेना और घुड़सवार सेना के साथ उम्भेरखिंड के घने जंगलो में घात लगाकर हमला किया |
शाइस्ता खाँ के आक्रमणों का प्रतिशोध लेने और समाप्त राजकोष को भरने के लिए 1664 में शिवाजी ने मुगलों के ब्यापार केंद्र सुरत को लुट लिया|

औरंगजेब ने गुस्से में आकर मिर्जा राजा जय सिंह I को 150,000 सैनिको के साथ भेजा |
जय सिंह की सेना ने कई मराठा किलो पर कब्जा कर लिया और शिवाजी को ओर अधिक किलो को खोने के बजाय औरंगजेब से शर्तो के लिए बाध्य किया |
जयसिंह और शिवाजी के बीच पुरन्दर की संधि हुयी जिसमे शीवाजी ने अपने 23 किले सौप दिए और जुर्माने के रूप में मुगलों को 4 लाख रूपये देने पड़े|

उन्होंने अपने पुत्र साम्भाजी को भी मुगल सरदार बनकर औरंगजेब के दरबार में सेवा  की बात पर राजी हो गये |

शिवाजी के एक सेनापति नेताजी पलकर धर्म परिवर्तन कर मुगलों में शामिल हो गये और उनकी बाहदुरी को पुरुस्कार भी दिया गया |

मुगलों की सेवा करने के दस वर्ष बाद  वो फिर शिवाजी के पास लौटे और शिवाजी के कहने पर फिर से हिन्दू धर्म स्वीकार किया |

1666 में औरंगजेब ने शिवाजी को अपने नौ साल के पुत्र संभाजी के साथ आगरा बुलाया|
औरंगजेब की शिवाजी को कांधार भेजने की योजना थी ताकि वो मुगल साम्राज्य को पश्चिमोत्तर सीमांत संघटित कर सके |

12 मई 1666 को औरंगजेब ने शिवाजी को दरबार में अपने मनसबदारो के पीछे खड़ा रहने को कहा|
शिवाजी ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में दरबार पर धावा बोल दिया | शिवाजी को तुरंत आगरा के कोतवाल ने गिरफ्तारकर  लिया।

शिवाजी को आगरा मेंबंदी बनाना और बच कर निकल जाना:-

       शिवाजी ने कई बार बीमारी का बहाना बनाकर औरंगजेब को धोखा देकर डेक्कन जाने की प्रार्थना की | हालांकि उनके आग्रह करने पर उनकी स्वास्थ्य की दुवा करने वाले  आगरा के संत,फकीरों और मन्दिरों में प्रतिदिन मिठाइयाँ और उपहार भेजने की अनुमति दी |

कुछ दिनों तक ये सिलसिला चलने के बाद शिवाजी ने संभाजी को मिठाइयो की टोकरी में बिठाकर और खुद मिठाई की टोकरिया उठाने वाले मजदूर बनकर वहा से भाग गये|

इसके बाद शिवाजी और उनका पुत्र साधू के वेश में निकलकर भाग गये|
भाग निकलने के बाद  शिवाजी ने खुद को और संभाजी को मुगलों से बचाने के लिए संभाजी की मौत की अपवाह फैला दी |

इसके बाद संभाजी को विश्वनीय लोगो द्वारा आगरा से मथुरा ले जाया गया  |

शिवाजी के बच निकलने के बाद शत्रुता कमजोर हो गयी  और संधि की शर्ते 1670 के अंत तक खत्म हो गयी |  इसके बाद शिवाजी ने एक मुगलों के खिलाफ एक बड़ा आक्रमण किया और चार महीनों में उन्होंने मुगलों द्वारा छीने गये प्रदेशो पर फिर कब्जा कर लिया |
इस दौरान तानाजी मालुसरे ने सिंघाड़ का किला जीत लिया था |

शिवाजी दुसरी बार जब सुरत को लुट कर आ रहे थे तो दौड़ खान के नेतृत्व में मुगलों ने उनको रोकने की कोशिश की लेकिन  उनको शिवाजी ने युद्ध में परास्त कर दिया |

अक्टूबर 1670 में शिवाजी ने अंग्रेजो को परेशान करने के लिए अपनी सेना बॉम्बे भेजी , अंग्रेजो ने युद्ध सामग्री बेचने से मना कर दिया तो उनकी सेना से बॉम्बे की लकड़हारो के दल को अवरुद्ध करदिया

नेसारी की जंग और शिवाजी का राज्याभिषेक:-

1674 में मराठा सेना के सेनापति प्रतापराव गुर्जर को आदिलशाही सेनापति बहलोल खान की सेना पर आक्रमण के लिए बोला|
प्रतापराव की सेना पराजित हो गयी और उसे बंदी बना लिया |
इसके बावजूद शिवाजी ने बहलोल खान को प्रतापराव को रिहा करने की धमकी दी वरना वो हमला बोल देंगे |

शिवाजी ने प्रतापराव को पत्र लिखकर बहलोल खान की बात मानने से इंकार कर दिया |
अगले कुछ दिनों में शिवाजी को पता चला कि बहलोल खान की 15000 लोगो की सेना कोल्हापुर के निकट नेसरी में रुकी है |
प्रतापराव और उसके छ: सरदारों ने आत्मघाती हमला कर दिया ताकि शिवाजी की सेना को समय मिल सके |

मराठो ने प्रतापराव की मौत का बदला लेते हुए बहलोल खान को हरा दिया और उनसे अपनी जागीर छीन ली|

शिवाजी प्रतापराव की मौत से काफी दुखी हुए और उन्होंने अपने दुसरे पुत्र की शादी प्रतापराव की बेटी से कर दी |

शिवाजी ने अब अपने सैन्य अभियानों से काफी जमीन और धन अर्जित कर लिया लेकिन उन्हें अभी तक कोई औपचारिक ख़िताब नही मिला था |  एक राजा का ख़िताब ही उनको आगे आने वाली चुनौती से रोक सकता था |

शिवाजी को रायगढ़ में मराठो के राजा का ख़िताब दिया गया |
पंडितो ने सात नदियों के पवित्र पानी से उनका राज्याभिषेक किया|
अभिषेक के बाद शिवाजी ने जीजाबाई से आशीर्वाद लिया |

उस समारोह में लगभग रायगढ़ के 5000 लोग इक्ठटा हुए थे |
शिवाजी को छत्रपति का खिताब भी यही दिया गया|
राज्याभिषेक के कुछ दिनों बाद जीजाबाई की मौत हो गयी|
इसे अपशकुन मानते हुए दुसरी बार राज्याभिषेक किया गया|

दक्षिणी भारत में विजय और शिवाजी के अंतिम दिन:-

       1674 की शुरुवात में मराठो ने एक आक्रामक अभियान चलाकर खानदेश पर आक्रमण कर बीजापुरी पोंडा , कारवार और कोल्हापुर पर कब्जा कर लिया|
इसके बाद शिवाजी ने दक्षिण भारत में विशाल सेना भेजकर आदिलशाही किलो को जीता |

शिवाजी ने अपने सौतेले भाई वेंकोजी से सामजंस्य करना चाहा लेकिन असफल रहे 
इसलिए रायगढ़ से लौटते वक्त उसको हरा दिया और मैसूर के अधिकतर हिस्सों पर कब्जा करलिया |

1680  में शिवाजी बीमार पड़ गये और 52 वर्ष की उम्र में इस दुनिया से चले गये| 

संभाजी महाराज इसके बाद वीरयोद्धा की तरह कई वर्षो तक मराठो के लिए लड़े|
शिवाजी के मौत के बाद 27 वर्ष तक मराठो का मुगलों से युद्ध चला और अंत में मुगलों को हरा दिया |
इसके बाद अंग्रेजो ने मराठासाम्राज्य को समाप्त किया था |

मित्रो शिवाजी महाराज मराठी लोगो के लिए देवता समान है और हिन्दुओ में उनका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है इसलिए अगर शिवाजी की इस विस्तृत जीवनी में भूलवश कुछ गलत लिखा हो तो क्षमा करे

महर्षि दयानंद सरस्वती

*महर्षि दयानंद सरस्वती*

✍✍✍✍✍✍✍✍✍✍
*प्रारम्भिक जीवन एवम निजी जानकारी*
☘इनका प्रारम्भिक नाम *मूलशंकर अंबाशंकर तिवारी*था
इनका जन्म *12 फरवरी 1824* को *टंकारा* गुजरात में हुआ था .
यह एक *ब्राह्मण* कूल से थे . पिता एक समृद्ध नौकरी पेशा व्यक्ति थे इसलिए परिवार में धन धान्य की कोई कमी ना थी .

✍✍✍✍✍✍✍✍✍
*पूरा नाम-   स्वामी दयानन्द सरस्वती*

*जन्म -    12 फरवरी, 1824*

*जन्म भूमि-   मोरबी, गुजरात*

*मृत्यु -   30 अक्टूबर, 1883 [1]*

*मृत्यु स्थान -  अजमेर, राजस्थान*

*अभिभावक -   अम्बाशंकर*

*गुरु-    स्वामी विरजानन्द*

*मुख्य रचनाएँ-   सत्यार्थ प्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला,* *गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, स्वीकारपत्र आदि।*

*भाषा-     हिन्दी*

*पुरस्कार -    उपाधि महर्षि*

*विशेष योगदान-     आर्य समाज की स्थापना*

*नागरिकता-     भारतीय*

*संबंधित लेख -    दयानंद सरस्वती के प्रेरक प्रसंग*

*अन्य जानकारी- दयानन्द* *सरस्वती के जन्म का नाम 'मूलशंकर तिवारी' था।*

*अद्यतन‎*-        
*12:32, 25 सितम्बर 2011 (IST)*

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एक घटना के बाद इनके जीवन में बदलाव आया और इन्होने *1846, 21* वर्ष की आयु में सन्यासी जीवन का चुनाव किया और अपने घर से विदा ली . उनमे जीवन सच को जानने की इच्छा प्रबल थी जिस कारण उन्हें सांसारिक जीवन व्यर्थ दिखाई दे रहा था इसलिए ही इन्होने अपने विवाह के प्रस्ताव को ना बोल दिया . इस विषय पर इनके और इनके पिता के मध्य कई विवाद भी हुए पर इनकी प्रबल इच्छा और  दृढता के आगे इनके पिता को झुकना पड़ा . इनके इस व्यवहार से यह स्पष्ट था कि इनमे विरोध करने एवम खुलकर अपने विचार व्यक्त करने की कला जन्म से ही निहित थी . इसी कारण ही इन्होने *अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा विरोध किया* और देश को *आर्य भाषा*अर्थात *हिंदी* के प्रति जागरूक बनाया .

  *कैसे बदला स्वामी जी का जीवन ?*

स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम *मूलशंकर तिवारी* था, यह एक साधारण व्यक्ति थे जो सदैव पिता की बात का अनुसरण करते थे . जाति से *ब्राह्मण* होने के कारण परिवार सदैव धार्मिक अनुष्ठानों में लगा रहता था . एक बार महाशिवरात्रि के पर्व पर इनके पिता ने इनसे उपवास करके विधि विधान के साथ पूजा करने को कहा और साथ ही *रात्रि जागरण व्रत* का पालन करने को कहा . पिता के निर्देशानुसार मूलशंकर ने व्रत का पालन किया पूरा दिन उपवास किया और रात्रि जागरण के लिये वे शिव मंदिर में ही पालकी लगा कर बैठ गये . अर्धरात्रि में उन्होंने मंदिर में एक दृश्य देखा, जिसमे *चूहों का झुण्ड* भगवान की मूर्ति को घेरे हुए हैं और सारा प्रशाद खा रहे हैं .  तब मूलशंकर जी के मन में प्रश्न उठा, यह भगवान की *मूर्ति* वास्तव में एक पत्थर की शिला ही हैं जो स्वयम की रक्षा नहीं कर सकती, उससे हम क्या अपेक्षा कर सकते हैं ? उस एक घटना ने मूलशंकर के जीवन में  बहुत बड़ा प्रभाव डाला और उन्होंने आत्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना घर छोड़ दिया और स्वयं को ज्ञान के जरिये मूलशंकर तिवारी से *महर्षि दयानंद सरस्वती बनाया .*

*1857 की क्रांति में योगदान :*
*1846* में घर से निकलने के बाद उन्होंने सबसे पहले *अंग्रेजो* के खिलाफ बोलना प्रारम्भ किया उन्होंने देश भ्रमण के दौरान यह पाया कि लोगो में भी *अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश* हैं बस उन्हें उचित मार्गदर्शन की जरुरत हैं इसलिए उन्होंने लोगो को एकत्र करने का कार्य किया . उस समय के महान वीर भी स्वामी जी से प्रभावित थे उन में *तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब* आदि थे इन लोगो ने स्वामी जी के अनुसार कार्य किया . लोगो को जागरूक कर सभी को सन्देश वाहक बनाया गया जिससे आपसी रिश्ते बने और एकजुटता आये . इस कार्य के लिये उन्होंने रोटी तथा कमल योजना भी बनाई और सभी को देश की आजादी के लिए जोड़ना प्रारम्भ किया . इन्होने सबसे पहले साधू संतो को जोड़ा जिससे उनके माध्यम से जन साधारण को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके .

हालाँकि *1857*की क्रांति विफल रही लेकिन स्वामी जी में निराशा के भाव नहीं थे उन्होंने यह बात सभी को समझायी . उनका मानना था कई वर्षो की गुलामी एक संघर्ष से नही मिल सकती, इसके लिए अभी भी उतना ही समय लग सकता हैं जितना अब तक गुलामी में काटा गया हैं . उन्होंने विश्वास दिलाया कि यह खुश होने का वक्त हैं क्यूंकि आजादी की लड़ाई बड़े पैमाने पर शुरू हो गई हैं और आने वाले कल में देश आजाद हो कर रहेगा . उनके ऐसे विचारों ने लोगो के हौसलों को जगाये रखा . इस क्रांति के बाद स्वामी जी ने अपने *गुरु विरजानंद* के पास जाकर वैदिक ज्ञान की प्राप्ति का प्रारम्भ किया और देश में नये विचारों का संचार किया . अपने गुरु के मार्ग दर्शन पर ही स्वामी जी ने समाज उद्धार का कार्य किया .

*जीवन में गुरु का महत्व :*
ज्ञान की चाह में ये *स्वामि विरजानंद* जी से मिले और उन्हें अपना गुरु बनाया . विरजानंद ने ही इन्हें वैदिक शास्त्रों का अध्ययन करवाया . इन्हें योग शास्त्र का ज्ञान दिया . विरजानंद जी से ज्ञान प्राप्ति के बाद जब स्वामी दयानंद जी ने इनसे गुरु दक्षिणा का पूछा, तब *विरजानंद ने इन्हें समाज सुधार, समाज में व्याप्त कुरूतियों के खिलाफ कार्य करने, अंधविश्वास को मिटाने, वैदिक शास्त्र का महत्व लोगो तक पहुँचाने, परोपकार ही धर्म हैं इसका महत्व सभी को समझाने जैसे कठिन संकल्पों में बाँधा और इसी संकल्प को अपनी गुरु दक्षिणा कहा*

गुरु से मार्गदर्शन मिलने के बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने समूचे *राष्ट्र* का भ्रमण प्रारम्भ किया और वैदिक शास्त्रों के ज्ञान का प्रचार प्रसार किया . उन्हें कई विपत्तियों का सामना करना पड़ा, अपमानित होना पड़ा लेकिन उन्होंने कभी अपना मार्ग नहीं बदला . इन्होने सभी धर्मो के मूल ग्रन्थों का अध्ययन किया और उनमे व्याप्त बुराइयों का खुलकर विरोध किया . इनका विरोध ईसाई, मुस्लिम धर्म के अलावा सनातन धर्म से भी था इन्होने वेदों में निहित ज्ञान को ही सर्वोपरि एवम प्रमाणित माना . अपने इन्ही मूल भाव के साथ इन्होने आर्य समाज की स्थापना की .
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*बाल विवाह विरोध :*
*उस समय बाल विवाह की प्रथा सभी जगह व्याप्त थी सभी उसका अनुसरण सहर्ष करते थे . तब स्वामी जी ने शास्त्रों के माध्यम से लोगो को इस प्रथा के विरुद्ध जगाया उन्होंने स्पष्ट किया कि शास्त्रों में उल्लेखित हैं *मनुष्य जीवन में अग्रिम 25 वर्ष ब्रम्हचर्य के* *है उसके अनुसार बाल विवाह एक कुप्रथा हैं . उन्होंने कहा कि अगर बाल विवाह होता हैं वो मनुष्य निर्बल बनता हैं और निर्बलता के कारण समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त होता हैं .*

*सती प्रथा विरोध ;*
*पति के साथ पत्नी को भी उसकी मृत्यु शैया पर अग्नि को समर्पित कर देने जैसी अमानवीय सति प्रथा का भी इन्होने विरोध किया और मनुष्य जाति को प्रेम आदर का भाव सिखाया . परोपकार का संदेश दिया .*

*विधवा पुनर्विवाह :*
*देश में व्याप्त ऐसी बुराई जो आज भी देश का हिस्सा हैं विधवा स्त्रियों का स्तर आज भी देश में संघर्षपूर्ण हैं . दयानन्द सरस्वती जी ने इस बात की बहुत निन्दा की और उस ज़माने में भी नारियों के सह सम्मान पुनर्विवाह के लिये अपना मत दिया और लोगो को इस ओर जागरूक किया .*

*एकता का संदेश ;*
*दयानन्द सरस्वती जी का एक स्वप्न था जो आज तक अधुरा हैं , वे सभी धर्मों और उनके अनुयायी को एक ही ध्वज तले बैठा देखना चाहते थे . उनका मानना था आपसी लड़ाई का फायदा सदैव तीसरा लेता हैं इसलिए इस भेद को दूर करना आवश्यक हैं . जिसके लिए उन्होंने कई सभाओं का नेतृत्व किया लेकिन वे हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई धर्मों को एक माला में पिरो ना सके .*

*वर्ण भेद का विरोध :*
*उन्होंने सदैव कहा शास्त्रों में वर्ण भेद शब्द नहीं बल्कि वर्ण व्यवस्था शब्द हैं जिसके अनुसार चारों वर्ण केवल समाज को सुचारू बनाने के अभिन्न अंग हैं जिसमे कोई छोटा बड़ा नहीं अपितु सभी अमूल्य हैं . उन्होंने सभी वर्गों को समान अधिकार देने की बात रखी और वर्ण भेद का विरोध किया .*

*नारि शिक्षा एवम समानता :*
*स्वामी जी ने सदैव नारी शक्ति का समर्थन किया . उनका मानना था कि नारी शिक्षा ही समाज का विकास हैं . उन्होंने नारी को समाज का आधार कहा . उनका कहना था जीवन के हर एक क्षेत्र में नारियों से विचार विमर्श आवश्यक हैं जिसके लिये उनका शिक्षित होना जरुरी हैं .*

*आर्य समाज स्थापना :*
वर्ष *1875*में इन्होने गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की . आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म ही था . इन्होने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य आधार बताया जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था . ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी जिससे कई महान विद्वान प्रेरित हुए . कईयों ने स्वामी जी का विरोध किया लेकिन इनके तार्किक ज्ञान के आगे कोई टिक ना सका . बड़े – बड़े विद्वानों, पंडितों को स्वामी जी के आगे सर झुकाना पड़ा . इसी तरह अंधविश्वास के अंधकार में वैदिक प्रकाश की अनुभूति सभी को होने लगी थी .

*आर्य भाषा (हिंदी) का महत्व :*
वैदिक प्रचार के उद्देश्य से स्वामी जी देश के हर हिस्से में व्यख्यान देते थे *संस्कृत* में प्रचंड होने के कारण इनकी शैली संकृत भाषा ही थी . बचपन से ही इन्होने संस्कृत भाषा को पढ़ना और समझना प्रारंभ कर दिया था इसलिए वेदों को पढ़ने में इन्हें कोई परेशानी नहीं हुई . एक बार वे कलकत्ता गए और वहा *केशव चन्द्र सेन* से मिले . केशव जी भी स्वामी जी से प्रभावित थे लेकिन उन्होंने स्वामी जी को एक परामर्श दिया कि वे अपना व्यख्यान संस्कृत में ना देकर आर्य भाषा अर्थात हिंदी में दे जिससे विद्वानों के साथ- साथ साधारण मनुष्य तक भी उनके विचार आसानी ने पहुँच सके . तब वर्ष *1862* से स्वामी जी ने हिंदी में बोलना प्रारम्भ किया और *हिंदी को देश की मातृभाषा बनाने का संकल्प लिया* .हिंदी भाषा के बाद ही स्वामी जी को कई अनुयायी मिले जिन्होंने उनके विचारों को अपनाया . *आर्यसमाज का समर्थन सबसे अधिक पंजाब प्रान्त में किया गया .*

*समाज में व्याप्त कुरीतियों का विरोध एवम एकता का पाठ :*
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने समाज के प्रति स्वयम को उत्तरदायी माना और इसलिए ही उसमे व्याप्त कुरीतियों एवम *अंधविश्वासों* के खिलाफ आवाज बुलंद की .

*अन्य रचनाएँ*
✍✍✍✍✍✍✍✍✍ *स्वामी दयानन्द द्वारा लिखी गयी महत्त्वपूर्ण रचनाएं -*

✍ *सत्यार्थप्रकाश (1874 संस्कृत),*
✍ *पाखण्ड खण्डन (1866)*
✍ *वेद भाष्य भूमिका (1876),*
✍ *ऋग्वेद भाष्य (1877),*
✍ *अद्वैतमत का खण्डन (1873),*
✍ *पंचमहायज्ञ विधि (1875),*
✍ *वल्लभाचार्य मत का खण्डन (1875) आदि ।*

*महापुरुषों के विचार*

*स्वामी दयानन्द सरस्वती के योगदान और उनके विषय में विद्वानों के अनेकों मत थे-*
☄ *डॉ. भगवान दास ने कहा था कि स्वामी दयानन्द हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता थे।*

☄ *श्रीमती एनी बेसेन्ट का कहना था कि स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।*

☄ *सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।*

☄ *पट्टाभि सीतारमैया का विचार था कि गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं, पर स्वामी दयानन्द राष्ट्र–पितामह हैं।*

☄ *फ्रेञ्च लेखक रोमां रोलां के अनुसार स्वामी दयानन्द राष्ट्रीय भावना और जन-जागृति को क्रियात्मक रुप देने में प्रयत्नशील थे।*

*महत्त्वपूर्ण घटनाएँ*

*स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं :*

*चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),*
*अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय।*
*इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्न्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।*

*स्वामी जी के खिलाफ षड़यंत्र :*
अंग्रेजी हुकूमत को स्वामी जी से भय सताने लगा था . स्वामी जी के वक्तव्य का देश पर गहरा प्रभाव था जिसे वे अपनी हार के रूप में देख रहे थे इसलिये उन्होंने स्वामी जी पर निरंतर निगरानी शुरू की . *स्वामी जी ने कभी अंग्रेजी हुकूमत और उनके ऑफिसर के सामने हार नहीं मानी थी* बल्कि उन्हें मुँह पर कटाक्ष की जिस कारण अंग्रेजी हुकूमत स्वामी जी के सामने स्वयम की शक्ति पर संदेह करने लगी और इस कारण उनकी हत्या के प्रयास करने लगी . *कई बार स्वामी जी को जहर दिया गया लेकिन स्वामी जी योग में पारंगत थे* *और इसलिए उन्हें कुछ नहीं हुआ .*

*अंतिम षड्यंत्र:*
1883 में स्वामी दयानन्द सरस्वती *जोधपुर के महाराज के यहाँ गये .*  *राजा यशवंत सिंह ने उनका बहुत आदर सत्कार किया .* उनके कई व्यख्यान सुने . एक दिन जब राजा यशवंत एक नर्तकी नन्ही जान के साथ व्यस्त थे तब स्वामी जी ने यह सब देखा और अपने स्पस्ट वादिता के कारण उन्होंने इसका विरोध किया और शांत स्वर में यशवंत सिंह को समझाया कि एक तरफ आप धर्म से जुड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ इस तरह की विलासिता से आलिंगन हैं ऐसे में ज्ञान प्राप्ति असम्भव हैं . स्वामी जी की बातों का यशवंत सिंह पर गहरा असर हुआ और उन्होंने नन्ही जान से अपने रिश्ते खत्म किये . *इस कारण नन्ही जान स्वामी जी से नाराज हो गई और उसने रसौईया के साथ मिलकर स्वामी जी के भोजन में कांच के टुकड़े मिला दिए जिससे स्वामी जी का स्वास्थ बहुत ख़राब हो गया .* उसी समय इलाज प्रारम्भ हुआ लेकिन स्वामी जी को राहत नही मिली . रसौईया ने अपनी गलती स्वीकार कर माफ़ी मांगी . *स्वामी जी ने उसे माफ़ कर दिया .*
*उसके बाद उन्हें 26 अक्टूबर को अजमेर भेजा गया लेकिन हालत में सुधार नहीं आया और उन्होंने 30 अक्टूबर 1883 में दुनियाँ से रुक्सत ले ली .*

*अपने 59 वर्ष के जीवन में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने राष्ट्र में  व्याप्त बुराइयों के खिलाफ लोगो को जगाया और अपने वैदिक ज्ञान से नवीन प्रकाश को देश में फैलाया . यह एक संत के रूप में शांत वाणी से गहरा कटाक्ष करने की शक्ति रखते थे और उनके इसी निर्भय स्वभाव ने देश में स्वराज का संचार किया .*
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