Friday, 9 June 2017

फक्कड़पन

कलेक्टर- एसपी कांफ्रेंस के दौरान जयपुर में भरी दुपहरी में एक मोड़ पर ट्रैफिक सिग्नल के पास वाहनों की चिल्ल-पौं के बीच एक आदमी को सोए हुए देखा था - बेखबर, बेफिक्र ।  कुछ भी नहीं था उसके पास ज्यादा इतराने को, बताने को या जतलाने को। ये बेफिक्री, चेहरे पर एक संतुष्टि व शांति का भाव और आचरण में सादगी तथा सहजता।  कहाँ मिलती है और कैसे आती है ? ये गरीबी-अमीरी का परिणाम नहीं है, ये युवा और बुजुर्ग होने से नहीं जुड़ा है , इसका ग्रामीण-शहरी होने से कोई रिश्ता नहीं है। इसका सबसे नजदीकी शब्द जो मुझे सूझ रहा है, वह है फक्कड़पन। फक्कड़पन को सधुक्कड़ होने से नहीं जोड़िएगा। फक्कड़पन होना एक तरह से मिनिमलिस्ट होना है। इन दिनों जापान में लोग मिनिमलिस्ट हो रहे हैं। सरल तरीके से कहें तो मिनिमलिस्ट एक ऐसा तरीका है जो आपको भौतिकतावादी जुड़ाव से परे एक अनूठा स्वातंत्र्य देता है। स्वातंत्र्य भय से, चिंता से, आत्ममुग्धता या आत्मग्लानि से, अति उत्साह या अवसाद से। यह उपभोक्तावादी तरीके से पनपे पदार्थसंग्रह की बजाय उन न्यूनतम पदार्थों को अपने पास रखने के लिए कहता है जो आपके जीवन के लिए न्यूनतम आवश्यकता है। निश्चित ही इसके लिए आत्मदृढ़ता की जरूरत है।
   बहुत बार मिला हूँ ऐसे फक्कड़ लोगों से और मिलने पर हर बार कहीं कोई दबी-सी चिणग सुलग पड़ती है। जब मैंने दर्शनशास्त्र से एमए किया था तो सच्चे अर्थों में बहुत कुछ पढ़ने की कोशिश की। वो भी पढ़ा जो सिलेबस में था मगर वो ज्यादा पढ़ा जो समझने के लिए जरूरी था। उसी समय से फक्कड़पन के प्रति आदर और आकर्षण का मिश्रण पैदा हो गया।
                फक्कड़पन से पाँव जमीन पर रहते हैं और निर्दोष मुस्कान चेहरे पर। इससे सहजता एवं सादगी आचरण में आ जाती है। जब खोने का डर नहीं हो तो एक आंतरिक सुख और संतुष्टि चेहरे से ही दिखने लग जाती है। फक्कड़पन किसी भी मात्रा में हो और किसी भी रूप में हो, मगर जब आप ऐसी सहजता में रहते हैं तो खुद के सबसे ज्यादा करीब होते हैं।
                बहुत बार अभिजात्य वर्ग की पार्टियों में शरीक होता हूँ तो शराब, कालीन, अंग्रेजी और तथाकथित बौद्धिक चर्चाओं के बीच चेहरे पर सूनापन और आत्मिक अशांति तथा असंतुष्टि साफ दिखती है। कुछ खोने का डर तथा और पा लेने की अतृप्त इच्छा हमें खुद के करीब आने ही नहीं देती है। सोचता हूँ कि आजकल व्हाट्सएप्प या सोशल मीडिया के दौर में सूचनाओं का प्रवाह इतना ज्यादा हो गया है कि आपको रूचि-अरुचि, धार्मिक श्रद्धा-अनास्था के बिना भी बहुत कुछ पढ़ना पड़ता है। कई बार तो खुद से मिले हुए भी कई दिन बीत जाते हैं।
                फक्कड़पन के लिए सड़क के किनारे सोने की, फटे कपड़ों या फाकाकशी की जरूरत नहीं है। वैचारिक सादगी, व्यवहारगत निर्मलता, व्यक्तिगत पारदर्शिता और आशावादी मुस्कान धीरे-धीरे पैदा की जा सकती है। मात्रा कम और ज्यादा हो सकती है। फक्कड़पन में हिसाब नहीं होता है, शिकायतें नहीं होती हैं, उलाहना-शिकवा भी नहीं होता। बेकसी-बेबसी भी नहीं होती है।
खुद से मिलने के लिए तो थोड़ा-सा फक्कड़पन तो चाहिए ही। थोड़ा-सा खुद को पा लेना शायद बाकी बहुत कुछ पा लेने से बेहतर ही है।

सांस लेने भर के खेल से जिंदगी पूरी करने की बजाय आओ कुछ  मौसम, गलियां और बहाने तलाशें फक्कड़पन के लिए !

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