Tuesday, 23 May 2017

राणा सांगा - Rana sanga of mewar


      *राणा सांगा*

*वीर सपूतों की भूमि राजस्थान*

राजस्थान की इस पावन प्रसूता धरा के कण कण में वीर योद्धाओं की आत्मा बसी हुई है। राजा रजवाड़ों की इस भूमि से अनेक वीर योद्धाओं क्रांतिकारियों ने अपनी शक्तियों और वीरता के कौशल से अपने पराक्रम के बल पर अपने शत्रुओं को नाकों चने चबवाए हैं ।

अपनी मातृभूमि की आबरु बचाने के लिए अपना सर्वस्व त्याग कर अपने प्राणों की आहुति  यहां के योद्धाओं ने दी है ।

इस मिट्टी के बारे में जानने के लिए महान कवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियां पढ़ें.....

*"जब जब में राजस्थान की धरती पर आता हूं तो मेरी रूह यह सोचकर कांप उठती है कि कहीं मेरे पैर के नीचे किसी  वीर की समाधि तो नहीं है, किसी विरांगना का थान तो नहीं है ,जिससे कि उसका अपमान हो जाए "*

रुडयार्ड किपलिंग का यह कथन राजस्थान के बारे में सब कुछ बयां करता है--

*शेरों की हड्डियां यहां के मार्ग की धूल बनती है*

इसी कड़ी में ऐसा योधा हुआ जिसकी वीरता युद्ध कौशल का बखान सदियों से चला आ रहा है और युगों-युगों तक चलता रहेगा हम बात कर रहे हैं मेवाड़ राजवंश के उस महान योद्धा राणा सांगा की जिन्होंने विदेशियों से मुक्त भारत में एक हिंदू छत्र भारत का सपना देखा।

यूं तो राणा सांगा किसी परिचय के मोहताज नहीं है, जन-जन में इनकी गाथाएं , शौर्य की कहानियां लोगों के दिलों दिमाग में छपी है फिर भी यह हम यह जानने की पूरी कोशिश करेंगे कि किस प्रकार एक अकेले योद्धा ने ऐसा क्या किया कि जिससे न केवल मेरे बल्कि प्रत्येक भारतीय के दिलो पर उसका  राज है।

एक पंक्ति राणा सांगा के लिए --
*खून में तेरे मिट्टी मिट्टी में तेरा खून।*
*आगे शत्रु पीछे शत्रु  फिर भी जीत का जनून ।।*
*_वा संग्राम जय संग्राम!!_*

*जीवन - परिचय*

आपका पूरा नाम महाराणा संग्रामसिंह ।

आप  परम पराक्रमी वीर *हिंदू सुरताण महाराणा कुंभा के पौत्र व रायमल के पुत्र थे।*

*माता -* महारानी रतन कंवर (गुजरात में हलवद के 24वें राज साहिब राजधरजी की पुत्री) - इन महारानी के 2 पुत्र हुए - 1. कुंवर पृथ्वीराज व 2. कुंवर संग्रामसिंह

*आप का जन्म विक्रम संवत पर 1539  वैशाख बदी नवमी ईस्वी संवत 12 अप्रैल, 1482 को हुआ।*

आपका कद मंझला, चेहरा मोटा, बड़ी आँखें, लम्बे हाथ व गेहुआँ रंग था । आप दिल के बड़े मजबूत व नेतृत्व करने में माहिर थे।

युद्धों में लड़ने के शौकीन एेसे कि जहां सिर्फ अपनी फौज भेजकर काम चलाया जा सकता हो, वहां भी खुद लड़ने जाया करते थे ।
*80 जख्मों से मशहूर हुए, हालांकि ग्रन्थों में 84 जख्म दर्ज हैं, इनमें से एक आँख कुंवर पृथ्वीराज ने फोड़ी*

*आप के  पुत्र --*
उदय सिंह द्वितीय,
भोजराज,
रतन सिंह,
राणा विक्रमादित्य.।

आपकी पत्नी का नाम कर्णावती था ।

*आपके बड़े भाई जयमल और पृथ्वीराज( उड़ना राजकुमार)  थे।*

*उपनाम*

1. मानवों का खण्डहर (कई जख्मों की वजह से),
2. सैनिकों का भग्नावेष,
3. सिपाही का अंश,
4. हिन्दुपत

*राज्याभिषेक*

  ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की राणा सांगा राजा बनेगा ।उनके राजयोग की प्रबल संभावना है।

फिर क्या था उनके बड़े भाई पृथ्वीराज जिनको उड़ना राजकुमार कहा जाता है और जयमल ईर्ष्या से ग्रस्त होकर उन को मारना चाहते थे ।
उनकी इस लड़ाई में राणा सांगा की एक आंख भी चली गई।

अजमेर के करमचंद पवार ने राणा सांगा को उनके भाइयों से बचाकर उन को संरक्षण प्रदान किया।

* अज्ञात वास के दौरान सांगा से जुडी एक दन्त कथा*

सांगा कई वर्षों तक भेष बदल कर रहे और इधर-उधर दिन काटते रहे, इसी क्रम में वे एक घोड़ा खरीदकर श्रीनगर (अजमेर जिले में) के करमचंद परमार की सेवा में जाकर चाकरी करने लगे।
इतिहास में प्रसिद्ध है कि एक दिन करमचंद अपने किसी सैनिक अभियान के बाद जंगल में आराम कर रहा था। उसी वक्त सांगा भी एक पेड़ के नीचे अपना घोड़ा बाँध आराम करने लगा और उसे नींद आ गई।
सांगा को सोते हुए कुछ देर में उधर से गुजरते हुए कुछ राजपूतों ने देखा कि सांगा सो रहे है और एक सांप उनपर फन तानकर छाया कर रहा है। यह बात उन राजपूतों ने करमचंद को बताई तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने खुद ने जाकर यह घटना अपनी आँखों से देखी।

इस घटना के बाद करमचंद को सांगा पर सन्देह हुआ कि हो ना हो, यह कोई महापुरुष है या किसी बड़े राज्य का वारिश और उसने गुप्तरूप से रह रहे सांगा से अपना सच्चा परिचय बताने का आग्रह किया।  तब सांगा ने उसे बताया कि वह मेवाड़ राणा रायमल के पुत्र है और अपने भाइयों से जान बचाने के लिए गुप्त भेष में दिन काट रहा है।

करमचंद पवार ने राणा सांगा को अज्ञात वास में रखा और जब तक उनका राज तिलक न हो गया तब तक वह उन के आश्रयदाता बने रहे।
उनके  बड़े भाइयों की मृत्यु के उपरांत राणा सांगा *24 मई 1509* को मेवाड़ की गद्दी पर आसीन हुए।

*सांगा के समकालीन विरोधी*

कहते हैं ना कि आपने विजय श्री हासिल की है, यह अधिक महत्वपूर्ण नहीं होती इस में चार चांद तो तब लगते हैं कि आपने किस विकट परिस्थितियों और किन के सामने विजय हासिल की है।

*सांगा जब मेवाड़ की बागडोर अपने हाथों में ली तब मेवाड़ की स्थिति न केवल सोचनीय थी बल्की मेवाड़ चारों ओर से शत्रुओं से भी गिरी थी।*

राणा सांगा ने अपने कौशल और वीरता के बल पर सभी को धूल चटाई।

*दिल्ली सल्तनत से* राज्याभिषेक के समय सिकंदर लोदी,  गुजरात में महमूद शाह बेगड़ा, और मालवा में नासिर शाह खिलजी उनके चारो और मंडरा रहे थे।

*मेवाड़ को सुदृढ  रक्षा कवच*

मेवाड़ के पड़ोसी राजपूत राज्यों को पुनः मेवाड़ के प्रभाव में लाने के लिए राणा सांगा ने वैवाहिक संबंध भी स्थापित किए।
इसके अतिरिक्त उन्होंने मेवाड़ के सीमा प्रांतों पर अपनी हितेषी और विश्वास पात्र व्यक्तियों को जागीर प्रदान कर मेवाड़ की केंद्रीय क्षेत्र को सुरक्षित ही नहीं कर दिया बल्कि इतना व्यवस्थित कर दिया कि यहां से मेवाड़ के शत्रु पर आक्रमण का संचालन किया जा सके।

*उन्होंने करमचंद पवार को अजमेर ,परबतसर , मांडल,  पुलिया,  बनेडा आदि 15 लाख वार्षिक आय के परगने जागीर में देकर मेवाड़ की उत्तरी पश्चिमी सीमा पर मजबूत प्रहरी बैठा दिया ।*

दक्षिणी पश्चिमी सीमा की गुजरात से रक्षार्थ इडर राज्य में *सुल्तान समर्थक भारमल को हटा कर  जमाता रायमल को गद्दी पर बैठाया* ।
मांडू के वजीर मेदिनराय को मेवाड़ प्रदेश में शरण  लेने पर गागरोन तथा  चंदेरी के प्रांतों की जागीर  प्रदान कर मालवा के विरुद्ध एक शक्तिशाली जागीर की स्थापना की।

  सिरोही, वागड़ तथा मारवाड़ के राजाओं से वार्तालाप कर मुस्लिम शासकों के विरुद्ध राजपूत राज्यों के मध्य संबंध का गठन किया जो मुस्लिम आक्रमणों के विरुद्ध परस्पर एक दूसरे की सहायता करने को तत्पर रह सके,  इस प्रकार राणा सांगा निश्चित ही मेवाड़ का प्रभाव संपूर्ण राजस्थान पर स्थापित कर दिया।

*कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार राणा संग्राम सिंह के शासनकाल 1509- 1528 में मेवाड राज्य की सीमा बहुत दूर तक फैल गई थी।*
उत्तर में बिना,  पूर्व  में सिंधु नदी, दक्षिण में मालवा और पश्चिम में दुर्गम अरावली सेल माला मेवाड़ की सीमा हो गई।
मेवाड़ राज्य की पुनः उन्नति राणा की योग्यता गंभीरता और दूरदर्शिता का द्योतक थी।

राणा संग्राम सिंह का उत्कर्ष मालवा गुजरात और दिल्ली के सुल्तानों के लिए आंखों की किरकिरी के समान था अतः सभी अवसर की ताक में थे कि मेवाड़ की बढ़ती ताकत को नष्ट कर दें इस हेतु सभी ने अलग-अलग प्रयत्न किए और राणा सांगा ने सभी को प्रत्युत्तर  दिया ।

*राणा सांगा और मालवा*

1511 इसी में नसीरुद्दीन शाह खिलजी की मृत्यु के बाद महमूद खिलजी द्वितीय मालवा की गद्दी पर बैठा किंतु नसीरुद्दीन के छोटे भाई भाई साहिब खान महमूद को हटाकर सिहासन अधिकृत कर लिया ।

फरवरी 1518 में सुल्तान महमूद खिलजी द्वितीय की सहायतार्थ गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह ने मालवा पर आक्रमण कर मांडू के दुर्ग को हस्तगत कर लिया।

  चंदेरी  के शासक मेदिनराय की सहायता हेतु अनुरोध पर राणा सांगा ने मालवा की ओर प्रस्थान किया लेकिन मांडू  दुर्ग के पतन के समाचार सुनकर गागरोन दुर्ग पर आक्रमण कर इस दुर्ग को मेदिनरय के अधिकार में सौंपकर मेवाड़ लौट आए।

*गागरोन युद्ध 1519*

*मालवा के लिए गागरोन दुर्ग का महत्व है उसी प्रकार था जैसे शेर के लिए दांत का*

राणा सांगा जब मेवाड़ लौट आए तब सुल्तान महमूद खिलजी ने पीछे से गागरोन दुर्ग पर धावा बोल दिया मेदिनराय ने फिर से राणा सांगा से सहायता मांगी तो राजपूत शासक पीछे कहां हटने वाला था ।

सांगा पुनः गागरोन पहुंच गए इस बार लड़ाई आर या पार की थी।
*गागरोन युद्ध 1519 सुल्तान को मुंह की खानी पड़ी ।*
सांगा ने सुल्तान को बंदी बना लिया राजस्थान के वीर योद्धा राणा सांगा न केवल अपनी बहादुरी से प्रसिद्ध था बल्कि मानवीय व्यवहार का भी अद्भुत परिचय दिया।
सांगा ने सुल्तान को मुक्त कर दिया और मालवा वापस कर दिया।

*पहली बार मेवाड़ ने इस युद्ध में रक्षात्मक युद्ध के स्थान पर आक्रमण युद्ध का आरंभ किया*।

गागरोन  युद्ध के पश्चात सांगा को मालवा संकट से मुक्ति मिल गई।

*संघर्ष कहां खत्म होने वाला था यह , महाराणा अभी तो आपको आसमान छूना है अभी तो और चलना है, विजय पथ पर आगे बढ़ते रहना है।*
अब बात करते हैं राणा सांगा और गुजरात के संबंधों की

*राणा सांगा और गुजरात*

1509 में राजतिलक के समय गुजरात का शासन महमूद बेगड़ा की हाथों में था, 1511 उस की मृत्यु के उपरांत उनका पुत्र मुजफ्फर शाह द्वितीय गुजरात की गद्दी पर आसीन हुआ ।

*ईडर हस्तक्षेप *

*इडर के राव भाणा के पुत्र रायमल्ल और भारमल में आपसी लड़ाई में राणा सांगा रायमल का  साथ दिया और उन को गद्दी पर बैठा दिया।*
राणा सांगा ने इडर राज्य में हस्तक्षेप से सांगा का गुजरात के सुल्तान  पर मुज्जफर शाह से टकराव शुरू हो गया।

अब आप को यह बता दे की सांगा योद्धा ही नहीं अपनी राजनीति कूटनीति का खेल भी अच्छी तरह से खेल रहा था।

*मुजफ्फरपुर का उत्तराधिकारी सिकंदर सा था, परंतु उसका दूसरा पुत्र बहादुर शाह गद्दी पर आसीन होना चाहता था, इसलिए वह राणा सांगा की शरण में चला गया मेवाड़ में रहते हुए राणा की माता ने बहादुर शाह को पुत्र वत् स्नेह  प्रदान किया ।*

राणा सांगा ने भी कई बार उसकी सहायता कर गुजरात लुटवाया।
इस प्रकार राणा ने अपनी राजनीति कूटनीति से गुजरात को दबाये रखने में सफल हुआ।

*दिल्ली सल्तनत और राणा सांगा*

1509 में राज्याभिषेक के समय दिल्ली का सुल्तान सिकंदर लोदी का शासन था यह वही सिकंदर लोदी है जिसने आगरा नगर की स्थापना की।

*सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र इब्राहिम लोदी 22 नवंबर 1517 दिल्ली के तख्त पर आसीन हुआ।*

*खतोली युद्ध 1517*

राणा सांगा ने दिल्ली सल्तनत के अधीन राजस्थान के पूर्व क्षेत्र को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया ।

सुल्तान को यह फूटी आंख न सुहायी और वह राणा को सबक सिखाने की ठान ली ।
सुल्तान ने मेवाड़ पर धावा बोल दिया उधर सांगा भी अपनी ताकत है लोदी को दिखाने के लिए तत्पर था ।

*परिणाम स्वरुप 1517 में हाड़ौती की सीमा पर खातोली का युद्ध हुआ।*

युद्ध का नतीजा राणा सांगा के पक्ष में रहा और सुल्तान परास्त होकर वापस दिल्ली लौट गया।

* बाड़ी धौलपुर युद्ध 1519*

सुल्तान राणा सांगा से खातोली युद्ध में मिली शिकस्त का बदला लेने की ठानी और *मिया मक्खन के नेतृत्व में शाही सेना राणा सांगा के विरुद्ध भेजी*
लेकिन परिणाम जस का  तस रहा ।

एक बार फिर शाही सेना को मुंह की खानी पड़ी।
इन दो युद्धों ने सांगा  कीर्ति में चार चांद लगा दिए।
राणा की प्रतिष्ठा तो बडी ही इसके साथ साथ उन का वर्चस्व और उनका कद  इतिहास  और ऊंचा होता गया ।

अब सुल्तान में मेवाड़ की तरफ आंख उठाने की हिम्मत   ही नहीं रही युद्ध की सोचना तो उसके लिए कोसों दूर की बात थी।

*बाबर का आगमन *

काबुल का शासक *बाबर तैमूर लंग के वंशज उमर शेख मिर्जा का पुत्र था।*
*कहा जाता है कि बाबर की मां चंगेज खान के वंशज में से  थी ।*

*भारतीय इतिहास में 20 अप्रैल 1526 को पानीपत की प्रथम लड़ाई में बाबर ने इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली से सल्तनत शासन को जड़ से उखाड़ फेंका ।*

दिल्ली का शासन मुगलों के हाथों में आ गया ।
बाबर जल्द ही राणा सांगा की कीर्ति और युद्ध कौशल से  परिचित हुआ और उसे डर भी लगने लगा कि यह राजपूत राणा कभी भी उस को धूल चटा सकता है ।
वह सोचने पर मजबूर हो गया ।

बाबर संपूर्ण भारत पर अपने साम्राज्य का परचम लहराना चाहता था लेकिन उस की राहों में सबसे बड़ा रोड़ा राणा सांगा था। बाबर जानता था कि जब तक राणा सांगा पर अधिकार नहीं कर लिया जाए तब तक उसका सपना, सपना ही बना रहेगा इसलिए उसने मेहंदी खान के नेतृत्व मे बयाना दुर्ग अधिकृत कर लिया।

*बयाना युद्ध*

*16 फरवरी 1527 को सांगा ने बाबर की सेना को हराकर बयाना दुर्ग पर कब्जा कर लिया ।*

बाबर को  आशंका भी नहीं थी कि उसे मुंह की खानी पड़ेगी।
उसे नहीं पता था कि यह राजपूत शासक इतना खतरनाक हो जाएगा और उस के सपनों को चकनाचूर कर देगा।

अब बाबर  सावधान हो गया और बदला लेने के लिए पुनः आक्रमण हेतु कूच किया ।

*सांगा की भूल*

बयाना की विजय के बाद सांगा सीकरी जाने का सीधा मार्ग छोड़कर भुसावर होकर सीकरी जाने का मार्ग पकड़ा ।
वह भुसावर में लगभग 1 माह है रुक  रहा और इससे बाबर को खानवा के मैदान में उपयुक्त स्थान पर पड़ाव डालने और उचित सैन्य संचालन का पर्याप्त समय मिल गया।
इसका परिणाम खानवा के युद्ध में  दिखा ।

*खानवा का युद्ध*

17 मार्च 1527 को खानवा के मैदान में बाबर और राणा सांगा दोनों की सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ ।

*सांगा चाहता तो बाबर से सन्धि कर  अपना राज्य बचा सकता था लेकिन वह जानता था कि यह संधि उसकी कीर्ति पर प्रश्न चिन्ह लगा देगी,  सांगा मर सकता था पर झुक नहीं सकता ।*

राणा सांगा के झंडे के नीचे लगभग सभी राजपूत राजा आए ।
*राणा सांगा ने अपनी  पाती पेरवन की राजपूत परम्परा को पुनर्जीवित करके प्रत्येक सरदार को अपनी ओर से युद्ध में शामिल होने का निमंत्रण भेजा ।*

*मारवाड़ के राव गंगा एवं मालदेव, आमेर का राजा पृथ्वीराज , ईडर का राजा भारमल, विरमदेव मेड़तिया , वागड़ ( डूंगरपुर )का राव उदय सिंह व खेतसिंह ,  देवलिया का रावत बाघसिंह ,. नरबद हाड़ा , चंदेरी का मेदिनराय,  वीर सिंह देव बीकानेर की राव जैतसी के पुत्र कुंवर कल्याणमल झाला अज्जा आदि कई राजपूत राणा सांगा के साथ थे*।

खानवा के युद्ध में शायद ही राजपूतों की कोई ऐसी शाखा रही जिससे कोई न कोई प्रसिद्ध व्यक्ति इस युद्ध में काम न आया हो।

सांग अंतिम हिंदू राजा थे उनके नेतृत्व में सभी राजपूत जातियां विदेशियों को बाहर निकालने के लिए एक साथ आयी।
सांगा राजपूताने की सेना के सेनापति बने थे इस  दौरान राणा सांगा के सिर पर एक तीर लगा जिससे वो मुर्छित हो गये।

तब *झाला अज्जा* सब  राज्य चिन्ह के साथ महाराणा के हाथी पर सवार किया और उसके अध्यक्षता में सारी सेना लड़ने लगी।
झाला अज्जा ने इस युद्ध संचालन में अपने प्राण दिए ।

थोड़ी ही देर में महाराणा के न होने की खबर सेना में फैल गई वह इसे सेना का मनोबल टूट गया ।

बाबर युद्ध में विजय हुआ । उनके साहस की तो उनके दुश्मन भी तारीफ करते थे। *बाबर ने खुद लिखा है कि "खानवा की लड़ाई से पहले उसके सैनिक राणा सांगा की सेना से घबराए हुए थे"* जिसकी वीरता के बारे में कहा जाता था कि वह अंतिम सांस तक लड़ती रहती है.।

मुर्छित महाराणा को राजपूत राजा *बसवा गांव*  ले गये। खानवा के युद्ध में *राणा सांगा के पराजय का मुख्य कारण राणा सांगा की प्रथम विजय  के बाद तुरंत ही युद्ध न  करके बाबर को तैयारी करने का समय देना था ।* राजपूतो की  तकनीक भी पुरानी थी और भी *बाबर की युद्ध की नवीन व्यूह रचना तुलुगमा पद्धति* से अनभिज्ञ थे।

बाबर की सेना के पास तोपें और बंदूकें थी जिसे राजपूत सेना की बड़ी हानि हुई ।

*खानवा युद्ध के परिणाम*

१. भारतवर्ष में मुगलों का राज्य स्थायी हो गया तथा बाबर स्थिर रूप से भारत वर्ष का बादशाह बना।
२.  इसे राजसत्ता राजपूतों के हाथ से निकल कर मुगलों के हाथ में आ गई जो लगभग 200 वर्षों से अधिक समय तक के उनके पास बनी रही।
३.  राज्य में राजपूतों का प्रताप महाराणा कुंभा के समय में बहुत बढ़ा और अपने शिखर पर पहुंच चुका था एकदम कम हो गया इसे भारत की राजनीतिक स्थिति में  राजपूतों का वह उच्च स्थान न रहा ।
४. मेवाड़ की प्रतिष्ठा और शक्ति के कारण राजपूतों का जो संगठन हुआ था, वह टूट गया ।

  *अन्तिम समय हार न मानना *

मुर्छित महाराणा को लेकर राजपूत जब  बसवा गांव पहुंचे तब महाराणा सचेत हुए और उन्होंने युद्ध के बारे में पूछा राजपूतों से सारा वृत्तांत सुनने के बाद राणा सांगा बहुत उदास हुए ।
बाद में सांगा बसवा से रणथंभोर चले गए।

बाद में बाबर   राजपूतो पर आक्रमण कर उनकी शक्ति को नष्ट करने के विचार से 19 जनवरी 1528 को चंदेरी पहुंचा। चंदेरी के मदन राय की सहायता करने तथा बाबर से बदला लेने के लिए सांगा चंदेरी की ओर प्रस्थान किया और *कालपी  से कुछ दूर ईरिच गांव में डेरा डाला* जहां उसके साथी राजपूतों ने जो नए युद्ध के विरोधी थे उसको फिर से  युद्ध में प्रविष्ट देखकर विष दे दिया ।

*कालपी नामक स्थान पर 30 जनवरी 1528 को राणा सांगा का स्वर्गवास हो गया ।*

उनको मांडलगढ़ लाया गया जहां उनकी समाधि है ।

*महाराणा सांगा वीर , उदार, कृतज्ञ, बुद्धिमान और न्याय प्रिय शासक थे।*
मेवाड़ के ही नहीं सारे भारतवर्ष के इतिहास में महाराणा सांगा संग्राम सिंह का विशिष्ट स्थान  है उनके राज्य काल में मेवाड़ा अपने गौरव वैभव के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच गया था परंतु दुर्भाग्यवश उन्हीं के शासनकाल में मेवाड़ का पतन प्रारंभ हुआ।

राणा संग्राम सिंह के साथ ही भारत की राजनीतिक रंग मंच पर हिंदू साम्राज्य का अंतिम दृश्य भी पूर्ण हो गया इसलिए उन्हें अंतिम भारतीय हिंदू सम्राट के रूप में स्मरण किया जाता है।

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लाला लाजपत राय

लाला लाजपत राय

"**महान देशभक्त ,यथार्थवादी राजनीतिज्ञ,दलितों के मसीहा, धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक, शिक्षा एवं संस्कृति के प्रचारक*"

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नाम लाला लाजपत राय

  जन्म = 28 जनवरी 1865 ई.

जन्म स्थान
ढूढिकें के गांव जिला लुधियाना (पंजाब)

पिता का नाम
श्री राधा कृष्ण अग्रवाल 

माता का नाम श्रीमती गुलाब देवी
आत्मकथा
The story  MyLife

"मेरे शरीर पर पड़ी हर एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत की अंतिम कीलें साबित होगी"

           जन्म
पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का जन्म पंजाब प्रांत के लुधियाना जिले के ढूढिकें के गाँव में 28 जनवरी 1865 ईसवीं को हुआ। इनके पिता श्री राधा कृष्ण अग्रवाल साधारण मास्टर थे तथा इनकी मां गुलाब देवी एक विदुषी महिला थी। लाजपत राय में सभी धर्मों का अद्भुत समन्वय था। उनके दादा जैन मत, पिता इस्लाम और माँ सिख मत की अनुयायी थी। अतः बालक लाजपत राय पर इनका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। शिक्षा एवं संस्कृति के प्रति लाजपत राय का विशेष अनुराग रहा।

           शिक्षा
लाजपत राय की प्रारंभिक शिक्षा रोपड़ शिमला और लाहौर में हुई। सन 1800 ईस्वी में पंजाब का कोलकाता दोनों विश्वविद्यालय से मैट्रिक परीक्षा एक साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा लाहौर से उर्त्तीण की तथा 1882 में मुख्तारी (छोटे वकील) की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात सन् 1886 में हिसार में वकालत करने लगे।

         रचनाए
**Young India
  *England's Det to India
**The Political Future of India
**Unhappy India
**The Story of My Life ** problem of national education of India

    आर्य समाज से संपर्क
हिसार में ये आर्य समाज के संपर्क में आए। हिसार में आर्य समाज की स्थापना हेतु अपनी आय की सारी बचत के 1500 रुपये उन्होंने दान में दे दिए। उन्होंने आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया। लाला हंसराज के साथ मिलकर दयानंद एंग्लो-वैदिक विद्यालय का प्रसार किया, लोग जिन्हें आजकल डीएवी स्कूल व  कॉलेज के नाम से जानते हैं।

      स्वदेशी धारणा
लाजपत राय स्वदेशी के समर्थक थे ।पंजाब में आर्य समाज ने भारतीय सांस्कृतिक जागरण और भारत के आर्थिक एवं राजनीतिक उत्थान का समर्थन करते हुए स्वदेशी को अपने विचार का एक माध्यम बनाया। लाजपत राय ने कहा कि स्वदेशी का अर्थ है, "अपने ही देश की वस्तुओं का प्रयोग करना।"  उनका विचार था कि स्वदेशी और बहिष्कार पूर्णत: शास्त्रसज्जित साम्राज्य की शक्ति के विरुद्ध निहत्थी धीन जनता का मुख्य रूप से राजनैतिक युद्धास्त्र है। स्वदेशी की भावना से देशवासियों में आत्मनिर्भरता, आत्मासहायता तथा आत्मसम्मान की भावना विकसित होगी। स्वदेशी आंदोलन के महत्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि, "मैं स्वदेशी को अपने देश के लिए उत्थान का उपाय समझता हूँ। स्वदेशी आंदोलन को हमें आत्माभिमानी, आत्मविश्वासी, स्वालंबी और त्यागी बनना चाहिए। स्वदेशी आंदोलन से हमें यह सीखना चाहिए कि हम किस प्रकार अपनी शिक्षा अपने साधनों,श्रम शक्ति, प्रतिभा का प्रयोग करें। स्वदेशी हमें धर्म और जातियों के बंधनों से मुक्ति दिला सकती है।"

              संगठन
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
   आर्य समाज
   हिन्दू महासभा

            आंदोलन
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन
धार्मिक मान्यताहिंदू धर्म

    राजनीति में प्रवेश
उन्होंने अपनी राजनीतिक जीवन यात्रा सन् 1886 में हिसार नगरपालिका के सदस्य के रूप में प्रारंभ की । सन 1818 में इलाहाबाद के कांग्रेस के अधिवेशन में सहभागिता की। तत्पश्चात 1893 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में इन्होंने तीन व्याख्यान दिए।
लालाजी ने 1901 में सरकार द्वारा नियुक्त "दुर्भिक्ष कमीशन" के सामने आग्रह किया कि 'हिंदू अनाथ बच्चों को ईसाई पादरियों को न दिया जाए, बल्कि हिंदू संस्थाओं को ही सौंप दिया जाए।' लाला लाजपत राय ने महात्मा गांधी जी से पहले ही अछूतोद्धार का कार्य प्रारंभ कर दिया था। सन् 1904 में कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में सहभागिता करने के बाद दक्षिण भारत के कई महत्वपूर्ण स्थानों की यात्रा के मध्य उनकी भेंट बहिन निवेदिता से हुई। इस भेट के विषय में वे लिखते हैं , "मार्ग में उनके मुख से मैंने जो बातें सुनी, उन्हें मैं कभी नहीं भूल सकता। वह ब्रिटिश राज्य से अत्यंत घृणा करती थीं और उन्हें भारतवासियों से बडा प्रेम था।"

           इंग्लैंड यात्रा
जून 1905 से 30 नवंबर 1905 तक इंग्लैंड में रहने के पश्चात भारत लौटने पर उनका अपूर्व सम्मान हुआ क्योंकि उन्होंने इंग्लैंड तथा स्कॉटलैंड के गांवों में भारतीय संस्कृति के गौरवपूर्ण पक्ष को दृढ़तापूर्वक रखते हुए भारतीयों का मान बढ़ाया था।

            भारत वापसी
भारत लौटने के बाद 1905 से लालाजी ने देश की राजनीति में बड़े जोर शोर से भाग लेना शुरु कर दिया। लाजपत राय ने बंग- भंग आंदोलन के समय बाल और पाल के साथ मिलकर जनता में अद्भुत राजनीतिक चेतना का संचार किया। उन्होंने बहिष्कार को जनता का बौद्धिक शस्त्र माना। कांग्रेस के बनारस अधिवेशन (1905) में लाजपत राय ने उदारवादियों की भिक्षावृत्ति की नीति का विरोध करते हुए कांग्रेस के मंच से निष्क्रिय प्रतिरोध की नीति अपनाने का आग्रह किया। यहीं से गरम दल कि नींव पड़ी। स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा का देशव्यापी कार्यक्रम लाल, बाल और पाल की ही देन है । बनारस अधिवेशन में लाला लाजपत राय ने कहा कि, "भारतीयों की शिकायत पर अंग्रेज तभी ध्यान देंने को विवश होंगे जब उनकी जेब पर सीधा खतरा हो जाएगा।"

          भारत निर्वासन
1907ईस्वी से उन्होंने सरदार अजीत सिंह (भगत सिंह के चाचा) के साथ मिलकर कालोनाइजेशन बिल के विरुद्ध आंदोलन बड़े वेग से चलाया। इससे ब्रिटिश सरकार भयभीत हो गई और उसने दोनों देशभक्तों को बिना मुकदमा चलाए ही 6 माह के लिए निर्वासन का दंड देकर मांडले जेल में भेज दिया। उनके देश निकाले को लेकर जनमानस में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और विवश होकर लॉर्ड मिंटो ने पंजाब के काले कानून को रद्द कर दिया। लाला लाजपत राय एक विजेता  के रूप में लाहौर पहुंचे।

     कांग्रेस का विभाजन
1907 में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए लाजपत राय सूरत पहुंचे। वहां पर लोकमान्य तिलक ने कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए इनका नाम पेश किया। लेकिन गोखले ने इसका विरोध किया। कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो गई ।यधपि लाला लाजपत राय ने नम्रतापूर्वक अपना नाम वापस ले लिया, क्योंकि वह छोटी सी बात पर कांग्रेस में मतभेद पैदा नहीं करना चाहते थे । लेकिन उनकी एकता की इच्छा के बावजूद दुर्भाग्यपूर्ण सूरत में कांग्रेस का विभाजन हो गया।

           सामाजिक कार्य
लालाजी दलितों , पीड़ितों , अनाथों , विधवाओं, असहायों के सच्चे सेवक थे । 1911 से 1913 तक का समय लाजपत राय ने अछूतोद्धार व हिंदुओं को संगठित करने में बिताया। अछूतों एवं अस्पृश्यों की दुर्दशा के प्रति कट्टर हिंदुओं का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से 1912 ईस्वी में उन्होंने काशी, प्रयाग, बरेली तथा मुरादाबाद की यात्रा की और अपने ओजस्वी भाषणों द्वारा हिंदुओं से इस कलंक को मिटाने की अपील भी की थी।

विदेशों में भारतीय स्वाधीनता के लिए प्रयास

सन 1914 में कांग्रेस के प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में लाजपत राय इंग्लैंड गए। इसी समय प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया और ब्रिटिश सरकार ने इन्हें भारत लौटने की अनुमति नहीं दी। वहां से यह अमेरिका चले गए। अमेरिका में इन्होंने भारतीय स्वाधीनता के लिए अनेक प्रयास किए। अमेरिकी प्रवास के दौरान उन्होंने "यंग इंडिया" और "इंग्लैंड डेट टू इंडिया" जैसी विख्यात पुस्तकें लिखी।

भारत वापसी और असहयोग आंदोलन

सन 1919 में भारत लौटकर लाजपत राय ने पंजाब में मार्शल लॉ और अमृतसर में जलियांवाला बाग हत्याकांड देखा। उनका हृदय सरकार के इस दमन चक्र के आक्रोश से भर उठा। सन 1920 ईस्वी में वे "इंडियन ट्रेड यूनियन कांग्रेस" के प्रथम अध्यक्ष बने । उन्होंने इस संगठन के माध्यम से भारतीय श्रमिकों की आवाज उठाई । सन 1920 ईस्वी में उन्हें कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष बना चुना गया। इसी अधिवेशन में गांधी जी के असहयोग प्रस्ताव को पारित किया था। 1921 में लाजपत राय ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और उन्हें 18 महीने का कारावास दिया गया। 1922 में गोखले का अनुसरण करते हुए 'सर्वेंट ऑफ पीपुल्स सोसाइटी' लाहौर में स्थापित की।

समाचार पत्र
जुलाई 1925 में "पीपुल" साप्ताहिक का प्रकाशन किया तथा उसके संस्थापक संपादक बने। यह साप्ताहिक पत्र इतना प्रभावशाली था कि अन्य समाचार पत्र इसके लेख प्रकाशित करते थे।

इन्होंने यंग इंडिया नामक साप्ताहिक समाचार पत्र भी निकाला।

साइमन कमीशन का भारत आगमन और उसका विरोध

सन् 1927 में देश में शासन के सुधार की नीति निर्धारित करने 'साइमन कमीशन' भारत आया। सभी दलों के नेताओं ने इसका विरोध किया।
  30 अक्टूबर 1928 को इसके लाहौर पहुंचने पर भारत के इस नायक ने विरोध करने वाले शांतिपूर्ण जुलूस का नेतृत्व किया।

पंजाब केसरी के "साइमन कमीशन वापस जाओ" के नारे से आकाश गूंज उठा।

  क्रूर अंग्रेज सैनिक एवं निष्ठुर पुलिस प्रमुख सांडर्स के नेतृत्व में देशभक्तों की आवाज को दबाने का पूरा प्रयास किया और भारत माँ के इस वीर सपूत को लाठियों से लहूलुहान कर दिया। सांडर्स के प्रहार से रक्त रंजित हो जाने पर भी लाला जी गिरे नहीं और गरजते हुए कहा कि, "मेरे शरीर पर पड़ी हर एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत की अंतिम कीलें साबित होगी।"

भारत माता का यह सपूत 17 नवंबर 1928 को भारत माँ की गोद में सदा-सदा के लिए समा गया।

बाद में भारत मां के दूसरे वीर सपूत वीर भगत सिंह ने इस देशभक्त के कातिल सांडर्स की हत्या का बदला लेने का कर्तव्य भी पूरा किया।

लाला लाजपत राय के कार्यों का मूल्यांकन करते हुए जनता ने उन्हें "शेर-ए-पंजाब " की उपाधि से सुशोभित किया।