Tuesday 23 May 2017

लाला लाजपत राय

लाला लाजपत राय

"**महान देशभक्त ,यथार्थवादी राजनीतिज्ञ,दलितों के मसीहा, धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक, शिक्षा एवं संस्कृति के प्रचारक*"

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नाम लाला लाजपत राय

  जन्म = 28 जनवरी 1865 ई.

जन्म स्थान
ढूढिकें के गांव जिला लुधियाना (पंजाब)

पिता का नाम
श्री राधा कृष्ण अग्रवाल 

माता का नाम श्रीमती गुलाब देवी
आत्मकथा
The story  MyLife

"मेरे शरीर पर पड़ी हर एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत की अंतिम कीलें साबित होगी"

           जन्म
पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का जन्म पंजाब प्रांत के लुधियाना जिले के ढूढिकें के गाँव में 28 जनवरी 1865 ईसवीं को हुआ। इनके पिता श्री राधा कृष्ण अग्रवाल साधारण मास्टर थे तथा इनकी मां गुलाब देवी एक विदुषी महिला थी। लाजपत राय में सभी धर्मों का अद्भुत समन्वय था। उनके दादा जैन मत, पिता इस्लाम और माँ सिख मत की अनुयायी थी। अतः बालक लाजपत राय पर इनका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। शिक्षा एवं संस्कृति के प्रति लाजपत राय का विशेष अनुराग रहा।

           शिक्षा
लाजपत राय की प्रारंभिक शिक्षा रोपड़ शिमला और लाहौर में हुई। सन 1800 ईस्वी में पंजाब का कोलकाता दोनों विश्वविद्यालय से मैट्रिक परीक्षा एक साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा लाहौर से उर्त्तीण की तथा 1882 में मुख्तारी (छोटे वकील) की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात सन् 1886 में हिसार में वकालत करने लगे।

         रचनाए
**Young India
  *England's Det to India
**The Political Future of India
**Unhappy India
**The Story of My Life ** problem of national education of India

    आर्य समाज से संपर्क
हिसार में ये आर्य समाज के संपर्क में आए। हिसार में आर्य समाज की स्थापना हेतु अपनी आय की सारी बचत के 1500 रुपये उन्होंने दान में दे दिए। उन्होंने आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया। लाला हंसराज के साथ मिलकर दयानंद एंग्लो-वैदिक विद्यालय का प्रसार किया, लोग जिन्हें आजकल डीएवी स्कूल व  कॉलेज के नाम से जानते हैं।

      स्वदेशी धारणा
लाजपत राय स्वदेशी के समर्थक थे ।पंजाब में आर्य समाज ने भारतीय सांस्कृतिक जागरण और भारत के आर्थिक एवं राजनीतिक उत्थान का समर्थन करते हुए स्वदेशी को अपने विचार का एक माध्यम बनाया। लाजपत राय ने कहा कि स्वदेशी का अर्थ है, "अपने ही देश की वस्तुओं का प्रयोग करना।"  उनका विचार था कि स्वदेशी और बहिष्कार पूर्णत: शास्त्रसज्जित साम्राज्य की शक्ति के विरुद्ध निहत्थी धीन जनता का मुख्य रूप से राजनैतिक युद्धास्त्र है। स्वदेशी की भावना से देशवासियों में आत्मनिर्भरता, आत्मासहायता तथा आत्मसम्मान की भावना विकसित होगी। स्वदेशी आंदोलन के महत्व को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि, "मैं स्वदेशी को अपने देश के लिए उत्थान का उपाय समझता हूँ। स्वदेशी आंदोलन को हमें आत्माभिमानी, आत्मविश्वासी, स्वालंबी और त्यागी बनना चाहिए। स्वदेशी आंदोलन से हमें यह सीखना चाहिए कि हम किस प्रकार अपनी शिक्षा अपने साधनों,श्रम शक्ति, प्रतिभा का प्रयोग करें। स्वदेशी हमें धर्म और जातियों के बंधनों से मुक्ति दिला सकती है।"

              संगठन
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
   आर्य समाज
   हिन्दू महासभा

            आंदोलन
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन
धार्मिक मान्यताहिंदू धर्म

    राजनीति में प्रवेश
उन्होंने अपनी राजनीतिक जीवन यात्रा सन् 1886 में हिसार नगरपालिका के सदस्य के रूप में प्रारंभ की । सन 1818 में इलाहाबाद के कांग्रेस के अधिवेशन में सहभागिता की। तत्पश्चात 1893 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में इन्होंने तीन व्याख्यान दिए।
लालाजी ने 1901 में सरकार द्वारा नियुक्त "दुर्भिक्ष कमीशन" के सामने आग्रह किया कि 'हिंदू अनाथ बच्चों को ईसाई पादरियों को न दिया जाए, बल्कि हिंदू संस्थाओं को ही सौंप दिया जाए।' लाला लाजपत राय ने महात्मा गांधी जी से पहले ही अछूतोद्धार का कार्य प्रारंभ कर दिया था। सन् 1904 में कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में सहभागिता करने के बाद दक्षिण भारत के कई महत्वपूर्ण स्थानों की यात्रा के मध्य उनकी भेंट बहिन निवेदिता से हुई। इस भेट के विषय में वे लिखते हैं , "मार्ग में उनके मुख से मैंने जो बातें सुनी, उन्हें मैं कभी नहीं भूल सकता। वह ब्रिटिश राज्य से अत्यंत घृणा करती थीं और उन्हें भारतवासियों से बडा प्रेम था।"

           इंग्लैंड यात्रा
जून 1905 से 30 नवंबर 1905 तक इंग्लैंड में रहने के पश्चात भारत लौटने पर उनका अपूर्व सम्मान हुआ क्योंकि उन्होंने इंग्लैंड तथा स्कॉटलैंड के गांवों में भारतीय संस्कृति के गौरवपूर्ण पक्ष को दृढ़तापूर्वक रखते हुए भारतीयों का मान बढ़ाया था।

            भारत वापसी
भारत लौटने के बाद 1905 से लालाजी ने देश की राजनीति में बड़े जोर शोर से भाग लेना शुरु कर दिया। लाजपत राय ने बंग- भंग आंदोलन के समय बाल और पाल के साथ मिलकर जनता में अद्भुत राजनीतिक चेतना का संचार किया। उन्होंने बहिष्कार को जनता का बौद्धिक शस्त्र माना। कांग्रेस के बनारस अधिवेशन (1905) में लाजपत राय ने उदारवादियों की भिक्षावृत्ति की नीति का विरोध करते हुए कांग्रेस के मंच से निष्क्रिय प्रतिरोध की नीति अपनाने का आग्रह किया। यहीं से गरम दल कि नींव पड़ी। स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार एवं राष्ट्रीय शिक्षा का देशव्यापी कार्यक्रम लाल, बाल और पाल की ही देन है । बनारस अधिवेशन में लाला लाजपत राय ने कहा कि, "भारतीयों की शिकायत पर अंग्रेज तभी ध्यान देंने को विवश होंगे जब उनकी जेब पर सीधा खतरा हो जाएगा।"

          भारत निर्वासन
1907ईस्वी से उन्होंने सरदार अजीत सिंह (भगत सिंह के चाचा) के साथ मिलकर कालोनाइजेशन बिल के विरुद्ध आंदोलन बड़े वेग से चलाया। इससे ब्रिटिश सरकार भयभीत हो गई और उसने दोनों देशभक्तों को बिना मुकदमा चलाए ही 6 माह के लिए निर्वासन का दंड देकर मांडले जेल में भेज दिया। उनके देश निकाले को लेकर जनमानस में तीव्र प्रतिक्रिया हुई और विवश होकर लॉर्ड मिंटो ने पंजाब के काले कानून को रद्द कर दिया। लाला लाजपत राय एक विजेता  के रूप में लाहौर पहुंचे।

     कांग्रेस का विभाजन
1907 में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए लाजपत राय सूरत पहुंचे। वहां पर लोकमान्य तिलक ने कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए इनका नाम पेश किया। लेकिन गोखले ने इसका विरोध किया। कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो गई ।यधपि लाला लाजपत राय ने नम्रतापूर्वक अपना नाम वापस ले लिया, क्योंकि वह छोटी सी बात पर कांग्रेस में मतभेद पैदा नहीं करना चाहते थे । लेकिन उनकी एकता की इच्छा के बावजूद दुर्भाग्यपूर्ण सूरत में कांग्रेस का विभाजन हो गया।

           सामाजिक कार्य
लालाजी दलितों , पीड़ितों , अनाथों , विधवाओं, असहायों के सच्चे सेवक थे । 1911 से 1913 तक का समय लाजपत राय ने अछूतोद्धार व हिंदुओं को संगठित करने में बिताया। अछूतों एवं अस्पृश्यों की दुर्दशा के प्रति कट्टर हिंदुओं का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से 1912 ईस्वी में उन्होंने काशी, प्रयाग, बरेली तथा मुरादाबाद की यात्रा की और अपने ओजस्वी भाषणों द्वारा हिंदुओं से इस कलंक को मिटाने की अपील भी की थी।

विदेशों में भारतीय स्वाधीनता के लिए प्रयास

सन 1914 में कांग्रेस के प्रतिनिधि मंडल के सदस्य के रूप में लाजपत राय इंग्लैंड गए। इसी समय प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया और ब्रिटिश सरकार ने इन्हें भारत लौटने की अनुमति नहीं दी। वहां से यह अमेरिका चले गए। अमेरिका में इन्होंने भारतीय स्वाधीनता के लिए अनेक प्रयास किए। अमेरिकी प्रवास के दौरान उन्होंने "यंग इंडिया" और "इंग्लैंड डेट टू इंडिया" जैसी विख्यात पुस्तकें लिखी।

भारत वापसी और असहयोग आंदोलन

सन 1919 में भारत लौटकर लाजपत राय ने पंजाब में मार्शल लॉ और अमृतसर में जलियांवाला बाग हत्याकांड देखा। उनका हृदय सरकार के इस दमन चक्र के आक्रोश से भर उठा। सन 1920 ईस्वी में वे "इंडियन ट्रेड यूनियन कांग्रेस" के प्रथम अध्यक्ष बने । उन्होंने इस संगठन के माध्यम से भारतीय श्रमिकों की आवाज उठाई । सन 1920 ईस्वी में उन्हें कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष बना चुना गया। इसी अधिवेशन में गांधी जी के असहयोग प्रस्ताव को पारित किया था। 1921 में लाजपत राय ने असहयोग आंदोलन में भाग लिया और उन्हें 18 महीने का कारावास दिया गया। 1922 में गोखले का अनुसरण करते हुए 'सर्वेंट ऑफ पीपुल्स सोसाइटी' लाहौर में स्थापित की।

समाचार पत्र
जुलाई 1925 में "पीपुल" साप्ताहिक का प्रकाशन किया तथा उसके संस्थापक संपादक बने। यह साप्ताहिक पत्र इतना प्रभावशाली था कि अन्य समाचार पत्र इसके लेख प्रकाशित करते थे।

इन्होंने यंग इंडिया नामक साप्ताहिक समाचार पत्र भी निकाला।

साइमन कमीशन का भारत आगमन और उसका विरोध

सन् 1927 में देश में शासन के सुधार की नीति निर्धारित करने 'साइमन कमीशन' भारत आया। सभी दलों के नेताओं ने इसका विरोध किया।
  30 अक्टूबर 1928 को इसके लाहौर पहुंचने पर भारत के इस नायक ने विरोध करने वाले शांतिपूर्ण जुलूस का नेतृत्व किया।

पंजाब केसरी के "साइमन कमीशन वापस जाओ" के नारे से आकाश गूंज उठा।

  क्रूर अंग्रेज सैनिक एवं निष्ठुर पुलिस प्रमुख सांडर्स के नेतृत्व में देशभक्तों की आवाज को दबाने का पूरा प्रयास किया और भारत माँ के इस वीर सपूत को लाठियों से लहूलुहान कर दिया। सांडर्स के प्रहार से रक्त रंजित हो जाने पर भी लाला जी गिरे नहीं और गरजते हुए कहा कि, "मेरे शरीर पर पड़ी हर एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत की अंतिम कीलें साबित होगी।"

भारत माता का यह सपूत 17 नवंबर 1928 को भारत माँ की गोद में सदा-सदा के लिए समा गया।

बाद में भारत मां के दूसरे वीर सपूत वीर भगत सिंह ने इस देशभक्त के कातिल सांडर्स की हत्या का बदला लेने का कर्तव्य भी पूरा किया।

लाला लाजपत राय के कार्यों का मूल्यांकन करते हुए जनता ने उन्हें "शेर-ए-पंजाब " की उपाधि से सुशोभित किया।

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