Sunday, 5 March 2017

दग्धं दग्धं त्यजति न पुनः काञ्चनं कान्तिवर्णं।

दग्धं दग्धं त्यजति न पुनः काञ्चनं कान्तिवर्णं।
छिन्नं छिन्नं त्यजति न पुनः स्वादुतामिक्षुदण्डम्।
धृष्टं धृष्टं त्यजति न पुनश्चन्दनं चारुगन्धं।
प्राणान्तेऽपि प्रकृति विकृतिर्नायते नोत्तमानाम्।।

भावार्थ --बार बार आग में जलाने पर भी सोना अपनी चमक और रंग नहीं छोड़ता है, बार बार काटे जाने पर भी इक्षुदण्ड (गन्ना) अपनी मिठास नहीं छोड़ता है। चन्दन भी बार बार घिसे जाने पर भी अपनी सुगन्ध नहीं छोड़ता है। इसी प्रकार महान व्यक्ति अपने आचरण और स्वभाव में विकृति (गिरावट) नहीं आने देते, चाहे उनके प्राण ही क्यों न चले जाये।

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