अक्सर माँ डिब्बे में भरती रहती थी
कंभी मठरियां , मैदे के नमकीन
तले हुए काजू ..और कंभी मूंगफली
तो कभी कंभी बेसन के लड्डू
आहा ..कंभी खट्टे मीठे लेमनचूस
थोड़ी थोड़ी कटोरियों में
जब सारे भाई बहनों को
एक सा मिलता
न कम न ज्यादा
तो अक्सर यही ख्याल आता
माँ ..ना सब नाप कर देती हैं
काश मेरी कटोरी में थोड़ा ज्यादा आता
फिर सवाल कुलबुलाता
माँ होना कितना अच्छा है ना
ऊँचा कद लंबे हाथ
ना किसी से पूछना ना किसी से माँगना
रसोई की अलमारी खोलना कितना है आसान
जब मर्जी खोलो और खा लो
लेकिन रह रह सवाल कौंधता
पर माँ को तो कभी खाते नहीं देखा
ओह शायद
तब खाती होगी जब हम स्कूल चले जाते होगे
या फिर रात में हमारे सोने के बाद
पर ये भी लगता ये डिब्बे तो वैसे ही रहते
कंभी कम नही होते
छुप छुप कर भी देखा
माँ ने डिब्बे जमाये करीने से
बिन खाये मठरी नमकीन या लडडू
ओह्ह
अब समझी शायद माँ को ये सब है नही पसन्द
एक दिन माँ को पूछा माँ तुम्हें लड्डू नही पसन्द
माँ हँसी और बोली
बहुत है पसन्द और खट्टी मीठी लेमनचूस भी
अब माँ बनी पहेली
अब जो सवाल मन मन में था पूछा मैंने
माँ तुमको जब है सब पसन्द
तो क्यों नही खाती
क्या डरती हो पापा से
माँ हँसी पगली
मैं भी खूब खाती थी जब मै बेटी थी
अब माँ हूँ जब तुम खाते हो तब मेरा पेट भरता है
अच्छा छोडो जाओ खेलो
जब तुम बड़ी हो जाओगी सब समझ जाओगी
आज इतने अरसे बाद
बच्चे की पसन्द की चीजें भर रही हूँ
सुन्दर खूबसूरत डिब्बों में
मन हीं मन बचपन याद कर रही
सच कहा था माँ ने
माँ बनकर हीं जानोगी
माँ का धैर्य माँ का प्यार माँ का संयम
सच है माँ की भूख बच्चे संग जुड़ी है
आज मैं माँ हूँ
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